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पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/१०१

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श्यामास्वप्न

करेगा और भी जितना अवकाश तुम मुझै कहने का दोगी उतना ही मैं भी कहूँगा--क्यौं कि “जहाँ तक खाट होगी पाँव भी वहीं तक फैलेंगे"--यह तो रहै --पर "प्रीति"--हाँ--"प्रीति"--इसके क्या अर्थ--और "निवाहने' के क्या अर्थ यह जरा मुझै बतावो . ये दोनों शब्द मैंने आज तक किसी शब्दवर्ण में भी नहीं पाए .

तुम तो अवश्य ही जानती होगी तभी तो तुमने इन्हें लिखा भी है, पर जब तक तुम इन शब्दों के लक्षण न बतावोगी मैं कुछ उत्तर नहीं दे सक्ता आज तक मैंने जो "प्रीति" के अर्थ समझे हैं वे ये हैं "प्रीति" के अर्थ "टेढ़ी" और "निवाहने" के अर्थ "अनहोनी" के हैं यदि तुम्हारे कोष में भी यही अर्थ हों तो मेरे अर्थ को पुष्ट करो नहीं तो स्याही फेर देना . मैं अपनी छोटी समझ से उस तुम्हारी पंक्ति का छोटा सा उत्तर देता हूँ के (कि) “यह सब तुम्हारे ही हाथ है." सत्यवती के हाथ जब मैंने तुम्हें कमल भेजा था तब उसने क्या कहा--याद है ? उसने कहा होगा कि “यह--ने हृदय कमल का कोष, तुम्है समर्पण किया है"-क्यौं-यही बात है न -यदि यही हो तो इसको समझ लेना, मुझसे अधिक नहीं लिखा जाता . मेरा हाथ कुछ और लिखने में काँपता है . क्षमा करना

"हमने दर्शन नहीं दिए"--ठीक है तुम्हारे आज काल दिन हैं कह लो जो चाहो, पर उस दिन कौन था जो चार घड़ी तक...... खड़ा रहा और आपने एक बार भी आँख उठाकर नहीं देखा. क्या जाने आप न रहीं हों, तो बस यह मेरी ही दृष्टि का दोष है . क्या इस्से भी और कुछ प्रमाण लोगी ? सुना चाहो तो कहैं, नहीं तो बस हो गया

"तुम्हारा मेरा समागम हुआ करता तो समय कट जाता, और तुम्हें सिखाने में मेरा भी जी लगता, पर इस दुखदाई रीति से सभी हारा है परवश सभी सहना पड़ता है .

“यदि तुम मुझे इतना चाहती हो कि जैसा तुमने अपने करकमलों के पास