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पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/१२१

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श्यामास्वप्न

हरीचंद फूलैंगे पलास कचनार वन

त्रिविध समीर की झको चारु भूकेंगी।

गावत बहार ढहै जीव को निकार अाजु

एक एक तान प्रान लेन को न चूकेंगी।

करैगो कसाई काम वाम कतलाम बिना श्याम

हाय डार हाय कोइलैं कुहू केगी।

हंसमाला में उनके पहुंचने का समाचार मेरे पास पहुँचा, मैं तो आनंदरूप हो गई . तन वदन की सुधि तक न रही; कोई कुछ पूछता तो कुछ का कुछ कह उठती , द्वार में वंदनवारे बाँधे, हर्ष गात में नहीं माता पिता ने पूछा "आज तोरन क्यों सँवारे हैं"मैंने उत्तर दिया "वसंत पूजा है न-माधव का उत्सव करती हूँ". इस यथो- चित उत्तर को पा सभी मौन रहे . तुलसी की माला बनाकर पहिनी, केशपाश सँवारे, मांग मोतियों से भरी, नैनों में काजर की ढरारी रेख लगाई . पीतांबर धारन कर प्रफुल्लित वदन पीत पंकज सा फूल -जिस मग से वे गए थे उसी मग में उनके आने की आस बाँध टक लाय रही . आशा थी कि साँझ नहीं तो सबेरे तक अवश्य पधारेंगे और मेरे द्वार को सनाथ करेंगे . दिन बीता, साँझ हुई, श्यामसुंदर न आए . रात को आने की तो कुछ आस थी ही नहीं, भोर ही शीघ्र उठने के लिए साँझ ही सब काज पूरा कर चुकी और अल्प आहार कर आठ बजे तक लंबी तान सो रही जिस्में सकारे नींद खुलै . रैन में चैन नहीं मिला-नैन प्रान प्रियतम के दर्शन के लिए प्यासे रहे . नींद न लगी ज्यौं त्यौं कर निशा काटी . इस पाटी से उस पाटी करोंटे लेती रही. झपकी भी न ले पाई थी कि रात रहतेई बड़े भोर तमचोर बोला . घर के सब सोए थे . वृंदा को जगाया और तरैयों की छाया रहते स्नान को चली . घाट तो निकट ही था-सूधी वाट धर ली . मेरी एक और ६