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पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/१२४

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श्यामास्वप्न

आज तेरा इतने सबेरे स्नान करने का क्या प्रयोजन था और दिन तो ऐसा नहीं होता था . आज यह नवीन ठाठ . वाहरी भोरी ! क्यौं न हो !" इतना कह आगे बढ़ी .

मैंने कहा "क्या तूने मुझसे कभी पूछा भी था कि वृथा कपट का कलंक लगाती है ?"

वृंदा ने कहा-"ठीक है री श्यामा ठीक है-क्यौं न हो, तू ऐसी न पढ़ी होती तो ऐसी बातें क्यों बनाती . भला जो कुछ हुआ सो हुआ, अब यह बताव कि यदि आज श्यामसुंदर आवै तो मेरा मुख मीठा करैगी वा नहीं-सत्य ही कह दे . आज मैं क्या इनाम पाऊँगी . सत्य ही कहना . तिल भर भेद न रखना"-

सुलोचना बोली--"मेरा भी उस इनाम में भाग रहैगा कि नहीं-- फिर तेरा सब काम तो हमी लोग सुधारेंगे .” मैंने कहा--'जो चाहो तुम लोग कहलो अब तो फँस ही गई . तुम लोगों से कुछ असत्य थोड़ ही कहना है, सब तो जान ही गई अब मेरे ही मुख से सुनने में क्या बात लगी है . क्या तुम्हारे ऊपर कभी नहीं बीती ?"

वृंदा और सुलोचना बोली--'-नहीं थोड़ ही कहते हैं--सभी पर बीतती है, पर हम (ने) तो तेरे कपट पर इतना कहा नहीं तो जैसा चाहती वैसा ही होता--"

मैंने कहा-"तो अब क्षमा करना-श्यामसुंदर आज आते होंगे . मुझे उनके दरसन का बड़ा चाव है . सखी सुलोचना कैसा (कैसी) करूं रहा नहीं जाता-

सखी हम कहा करें उनके बिन ।
वह मोहिनि मूरति छिन छिन में झूलति नैनन निसिदिन ॥१॥
उठत चलत बैठत निसिवासर डोलत बोलत चितवत ।
घर के काज अकाज किए सब जग सुख दुखमय बितवत ॥२॥