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पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/१२९

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श्यामास्वप्न

"प्रीति सीखिए ईख सौं जहँ जो रस की खान ।
जहाँ गाँठ तहँ रस नहीं यही प्रीति की बान ॥"

श्यामसुंदर झटपट बोले-
 

"प्रीति सिखाई ईख पै गांठहिं भरी मिठास ।
कपट गांठ नहि राखिए प्रीति गांठ दै गाँस ।।

और भी प्यारी देखो बिहारी ने कहा है-
 

हग अरुझत टूटत कुटुम जुरत चतुर चित प्रीति ।
परत गांठ दुरजन हिए दई नई यह रीति ॥"

हाथ जोर के बोली-"तुमसे कोन बराबरी करै-तुम पंडित और सर्वज्ञ हो-जो चाहो सो कहो-पर कुछ लोक लाज, वेद तो समझो तुम्हें कौन सिखावे"-श्यामसुंदर खड़े कैंपते थे, बदन का थरथराना मैंने लखा. लिलार, कपोल और हाथों में पसीना आ गया, स्वर भंग और प्रलय के लक्षण लक्षित थे-पलकों में आँसू झलके-बैन सतराने लगे- रोमांच हो आया, मुख विवर्ण को प्राप्त हुआ, गात्र भी स्तंभ हो गया . श्यामसुंदर गिरने लगा-मैंने सम्हारने को किया पर तब तक वह भूमि पर आ गया मेरे चरण के नीचे गिर पड़ा . मैं अपने को ऐसी भूल गई कि मंच से न उठी . मेरा भी वही हाल हो गया था, पर शरीर में बुद्धि बनी रही . श्यामसुंदर को हूँत कराया–पर वे न बोले. मैंने फिर बुलाया, वे बड़े कातर हो गए थे, गद्गद स्वर से कुछ बोले पर मैं कुछ समझी भी नहीं . कातर नैनों से मेरी ओर देखने लगे . मैंने अपने तन की ओर देखा फिर उनको देखा, लज्जित हो गई . मुख नीचे कर लिया, एक पोथी के पत्र गिनने लगी, भूमि को पद के अंगूठे से खोदने लगी आँख में आँसू की धार चलने लगी, ऊपर देखा न जाता था-साहस कर ऊपर निहारी, फिर मुख नीचा कर लिया , लंबी साँस ली, नैनों का जल आँचर से पोंछ डाला और श्यामसुंदर के मुख की ओर एक बार 3