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पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/१३९

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श्यामास्वप्न

देखि दिन द्वै में रसखान बात फैल जैहैं
सजनी कहाँ लौं चंद हाथन दुरायबो
काल ही कलिंदी तीर चितयो अचानक हू
दोहुन को दोऊ मुरि मृदु मुसिक्यायबो
दोऊ पर पैयाँ दोऊ लेत हैं बलैयाँ उन्हैं
भूलि गई गैयाँ इन्हैं गागरि उठायबो."

मैंने धीर से कहा "मैं तो कहती थी कि कोई देख लेगा भला अब कहो क्या होगा यह तो दुष्ट मरकंद की सी भाँख लगती है. जो वह हुआ तो बड़ा अनर्थ हुआ पर तुम अब ऐसा करो कि आगे हो जाव और मुझे अपने पीछे कर लेव, गली में मेरे (मेरी) ओर न देखना और न मकरंद की ओर जिस्में जान पड़े कि तुम्हारा ध्यान किसी ओर नहीं है. वह छोटी सी पुस्तक जो तुम्हारे खीसे में है निकालकर बड़े ध्यानपूर्वक पढ़ते चलो. नैन वहीं गड़ा दो. यदि कोई मिलै भी तो बुलाने पर भी मत बोलना. जुहारै तो सिर भर हिला देना. ऊपर कदापि न देखना नहीं तो नेन अंतरंग भाव के सदा साक्षी रहते हैं छिपते नहीं और समय पर जैसी बनै वैसी चतुराई करना. तो चलो मेरे तुम्हारे साथ चलने में कोई दोष नहीं, ऐसा तो कई बार हुआ है और मेरे पिता ने भी कई बार देख लिया है पर कुछ नहीं बोले".

इतना सुन वे भी यथोपदिष्ट रीति से चले. मकरंद मिला. बड़ी देर तक इस जुगल झांकी के दरसन किए पर श्यामसुंदर ने देखा भी नहीं. ऊँचे चढ़कर गली ही के पास नारद मिले, वे मुझसे कहने लगे "क्यौं इतनी देर लगाई चल भौजी बुलाती है उसके ओषधि का समय है न-" श्यामसुंदर नारद की ओर तनिक न देखे और मैंने भी नारद को उत्तर न दिया. मैं नारद की सदा घृणा करती. उसका मुख मुझे नहीं सुहाता केवल दाद की आन से कुछ नहीं बोलती . किंचित् आगे बढ़कर श्याम-