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पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/१५५

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श्यामारवप्न

की दूकान था . वाहरे ईश्वर ! मनोरथ पूरा हुआ. चश्मा मिलने की आस लगी. दूकान पर उतरे. एक गोरी थोरी वैसवाली निकल आई, इस गोरी के पीछे एक पुछ भी थी. मैंने ऐसी स्त्री कभी नहीं देखी थी . मुख मनोहर और वदन मदन का सदन था . इस कामिनी के कुचकलशों पर दो बंदर नाचते थे; इनके नाम दंभाधिकारी और पाखंड थे. इन बंदरों के (की) पूछ से कपट और वात नाम के दो बच्चे और लटकते थे .मैंने ऐसी लीला कभी नहीं देखी थी. करम ठोका आश्चर्य किया. साहस कर दूकान के भीतर जा पूछने लगा “गोरी तेरी दूकान में एक जोड़ चश्मा मिलैगा?" उसने त्यूरी चढ़ा के उत्तर दिया "मूर्ख द्वापर और त्रेता में कभी चश्मा था भी कि तू माँगता है. तब सभी लोगों की दृष्टि अविकार रहती थी. यह तो कलियुग में जब लोग आँख रहते भी अंधे होने लगे तब चश्मा भी किसी महापुरुष ने चला दिया • मुझे नहीं जानता मैं पाखंडप्रिया अभी श्वेत द्वीप से चली आती हूँ, मैं फणीश की बहिन हूँ, देख बिना चश्मा के तू देख लेगा कि मैं कैसी हूँ और मेरा रूप कैसा आश्चर्यमय है. भाग जा नहीं तो–हाँ तमाशा बताऊँगी". मैंने कहा "हा दैव ! किस आपत्ति में तूने मुझे डाला". झट श्यामा का स्मरण किया और ज्यौंही गंगासागर संगम में डुबकी लगाई पाप कट गए सब भ्रम नाश हो गया. रेल का खेल विला गया फिर भी वही श्यामा और मैं फिर भी वही पर्वत और नदी-और फिर भी वही चांदनी की रात-रात के दोपहर बीत चुके थे, तीसरा पहर था .

जिधर देखो उधर सूनसान-पशु पंछी संब योगियों के (की) भांति समाधि लगाए अपने अपने स्थल में बैठे थे. सच पूछो तो वह समय ऐसाही था जैसा हरिश्चन्द्र ने नीलदेवी के पंचम दृश्य में कहा है .

राग कलिंगड़ा, तितला
सोश्रो सुखनिदिया प्यारे ललन ।
नैनन के तारे दुलारे मेरे बारे,