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पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/१६०

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श्यामास्वप्न

मैं श्यामा की कविता सुनकर दंग हो गया, मैंने ऐसी अपूर्व कविता कभी किसी ललनागण के मुख से नहीं सुनी थी . मैं श्यामा और श्याम- सुंदर की प्रेम कहानी सुन चुका था -बहुत जी में विचार किया , हाथ कुछ न आया मैंने कहा-"श्यामा, तुम्हारी कविता ने मेरे जी में छेद कर दिया-हाय रे दई ! आज श्यामसुंदर न हुआ नहीं तो तुम्हारे रूप और गुण दोनों की बलिहारी होता, पर यदि उनके (की) ओर से मैं यह कहूँ तो तुम्हें कैसा लगै?

प्यारी पावस प्रबल प्रलय सम तुअ बिनु मुहि दुखदाई
अब हूं तो सुधि लेहु देत ए बादर विरह बधाई .
नूतन अवलि नीप बन दस दिसि वारिद पट सरि घारे
निज रज वसन समान दियो गुनि सखी भाव दुख टारे .
गगन गहन गिरि गिरा गभीरन गरजत गरज गयंदा
बीच बीच विचरत वन बिजुरी विलग विलग बक वृंदा
भीम भयानक भौनहु भासत भांदो भामिनि भोरी
तेरे रहित अतन तरकस तै तीर तान तन तोरी .
मृगनैनी मृगांक मन मंदिर मुद्यौ मधुर मुख मोही
परम प्रीति परतीत पीर पिय प्यारो परवस पोही .
चतुर चलाक चपल चपला चितचोर चोर चलु चीन्हो
छिप्यो छपाकर छितिज छीरनिधि छगुन छंद छल छीन्हो
झन झनात झिल्लो झंपावत झरना झर झर झाड़ी
ठसकि ठसकि ठठकी ठसकीली ठाठ ठाठ ठकि ठाड़ी .
डरत डरत डग डगरी डगरहिं डगमगात डहकानी
थरथरात थर थर थिर थाको थम्हि थम्हि थहरि थकानी .
दई दगा दर दर दिल दाह्यौ दाहकि दहन द्रुम दामा
जोहत जगी जगत जमजामिनि जगमोहन जन जाना.”