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पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/१६५

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श्यामास्वप्न

कहती हूँ, सुनो . इस विषय में श्यामसुंदर ने जो कविता की वह तुम्हें बताती हूँ

सोरठा

दूती वीजुरि रैन, सहचरि चिर सहचारिनी
जलद जोतिषी वैन, सायत धरत पयान की.
तिमिर सुमंगल वैन, तोम सदा झिल्ली रवै
मुग्धे लहि मिलि चैन, छोड़ि लाज पियकंठ लगि.

कुंडलिया

पैयां परि करि विनय बहु लाई वाहि मिलाय
जमुना पुलिन सुबालुका रही हिये लपिटाय
रही हिए लपिटाय मिटावत तनकी पीरा
मदनमंजरी चंपमालती अति रतिधीरा
सजनी राखे प्रान सींचि अधरामृत सैयाँ
मुरझत नव तन बेलि विरह तप सों परि पैंयाँ.

बरवै

सुभग सलिल अवगाहन पाटल पौन
सुखद छाहरे निदिया सुरभित भौन ।
रजनीमुख सजनी सो अति रमनीक
रमनी कमनी चुंबन बिनु सब फीक ।
तनिक तनिक लै चूमा बकुलन भौंर ।
अति सुकुमार डार पै मौरन झौंर ।
सदय दलित मधु मंजरि सिरिस रसाल
बालबाल नव जोबन द्रुमहु विशाल ।
लैकर बीन वसंतहिं गीत वसंत
कोइ परबीन लीन है बाग लसंत ।
कुंज चमेली बेली फैली जाय
श्यामालता नवेली फूली धाय ।