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पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/१७१

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श्यामास्वप्न

गया . बस वही दोहा हाथ रह गया श्यामसुंदर रोने लगा भूमि पर गिर पड़ा मैंने उसे उठाया प्रबोध किया आँखें पोछी और धीरज धराया पर सच्चे नेही कब मानते हैं .

'डरन डरें नींद न परै हरै न काल विपाक ।
छिन छनदा छाकी रहति छुटत न छिन छबिछाक !'

श्यामसुंदर मुझे अपना प्राचीन मित्र जान कहने लगा . संबंध, बस, जैसे देह और देही का--स्थूल और लिंग शरीर का हम लोगों में भेद नहीं था . इस मित्रता की कथा का स्वप्न नहीं हुआ इसी से इस स्थल पर नहीं लिखी . श्यामसुंदर का अनंत विलाप सुनो सुनने के लिए महाराज पृथु हो जावो ब्रह्मा से प्रार्थना कर उनसे उनका एक दिन भी उधार ले लेवो; वह बोला, "प्रिय पहले तो वह पत्र सुनो जो मेरे प्रियतम प्रेमपात्र ने लिखा था तब आगे कुछ कहूँगा

प्रियतम--! तुम्हारा पत्र बहुत दिनों पर आया जिसके विलम्ब का कारण तुमने किसी श्यामालता को बतलाया जो आज कल्ह तुम्हारे प्रेमतरु पर नित नव पल्लवित होगी . खैर-तुम्हारे प्रेम समुद्र की नौका तुमको आधार है-तुम्हारे आनंद के पाल उड़े पर ईश्वर तुमको उन निराशा की चट्टानों और वियोग के तूफानों से बचावै जिनने प्रायः प्रेम के सौदागरों की आशा भंग करके विध्वस्त किया है . तुम्हारे मनोरथ मंदिर की नवीनमूर्ति जिस्की पूजा तुमने प्रेम से की होगी- जिस्के चरणों पर सुमन समर्पित किये होगे-और जिस्के वरदानों से तुमको तृप्ति नहीं होती कृपा करके तुमको फिर फिर कृतार्थ करै !" तुम्हारा प्रेम