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पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/१७७

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श्यामास्वप्न

अपना स्वभाव क्यों नहीं छोड़ते क्या तुम्हें यश लेना अच्छा नहीं लगता ? क्या सदा कलंक प्रिय ही बनना भाता है-"

श्यामसुंदर कपोल हाथ पर रख कराहने लगा, मूर्छित हो भूमि पर गिर पड़ा . ज्ञान आंसुओं के साथ बह गया, विज्ञान का प्रदीप जो हृदय में जलता था बुझकर बाष्प हो आह के साथ निकल गया , केवल आह की बतास मात्र भर गई .

“साँसन ही सो समीर गयो अरु प्रांसुन ही सब नीर गयो ढरि
तेज गयो गुन लै अपनो पुनि भूमि गई तनु की तनुता करि ।
देव जिये मिलबे ही की आस सु श्रासहूपास अकास रह्यौ भरि ।
जा दिन तै मुख फेरि हरैं हंसि हेरि हियौ जु लियौ इरिजू हरि ।"

“पटी एकोन जाकी कही जितनी जेहि नेह निबाह्यौ न एको घटी,
घटी लाज सबै कुल कान भटू कहिए अब कासो कहे से लटी
लटी रीति सखी मनमोहन की कवि देव कहें व्रज में झगटो
गटी ग्वालिन की लटी बाँधे फिरै बसिए ना भटू कपटी की पटी."

अधिक कौन कह सकता है, केवल मन में मसूसि मसूसि रह जाना पड़ता है . मैं सोचने लगा कि देखो श्यामसुंदर नदी के इस पार खड़ा रहा-हा ईश्वर श्यामा कहाँ लोप हो गई . अंतर भी दोनों के बीच में कुछ ऐसा न था कि जिस्के कारण श्यामसुंदर को श्यामा के निकट पहुँचना असंभव होता . पर विधाता की अनीति कही नहीं जाती . मैंने श्यामसुंदर से कहा "भाई धीरज धर धीरज धर-देख यह आशानदी मनोरथ के जल से भरी तृष्णारूपी तरंगों से आकुल है, इस में राग के अनंत ग्राह कलोल करते हैं, इसके किनारे वितर्क के विहंगम उड़ रहे हैं और यह स्वयं धर्म के द्रुम को ध्वंस करती है. इसमें मोह की दुस्तर भौंरी पड़ती है और यह चिंता की अति गहन और ऊँची तटी के बीच से बह रही है. इसके पार जाना काम रखता है। 19 इसको सुन