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पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/१८३

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श्यामास्वप्न

बोलता था . केवल झिल्ली की झनकार सुना (सुनाई) पड़ती थी. मैं इसी अशोक के नीचे बैठ गया और सोचने लगा कि हाय रे ईश्वर ! तू मुझ हतभागे को किस विजन वन में लाया अब क्या करूँगा-कहाँ जाऊँगा . भग- तू भी बड़ा विचित्र है, मेरी दशा इस समय तो ऐसी हो गई थी “जैसे काक जहाज को सूझत और न ठौर" यह सब मुझे अपने मित्र श्यामसुंदर के काज सहना पड़ा-पर श्यामसुंदर अद्यापि कहीं दिखाई नहीं दिया . मैं इधर उधर बहुत दूर तक दृष्टि फेक देखने लगा पर कुछ भी पता न लगा . मैं अब मौन होकर आसन जमा के बैठ गया . अशोक से शोक मिटाने की प्रार्थना की, वह जड़ कब बोलने का था ? "जब तक स्वासा तब तक आशा"-यह कहावत प्रसिद्ध है. प्राणयात्रा की कुछ आशा न थी-प्राण बचना दुर्लभ जान पड़ा मांदा अपने करम को ठोक बैठा .

रात ही को मुझे भगवान् दिवाकर ने दर्शन दिये . यह भी आश्चर्य की बात है-सूर्योदय से मुझे कुछ भी हर्ष न हुआ-क्योंकि फिर तो संध्या की चिंता आई-जब संध्या होगी तब रात्रि तो अवश्य ही होगी . यह बड़ी गाढ़ी चिंता उपस्थित हुई क्योंकि इस निर्जन शिखर पर ही बिना अन्न पानी रात बितानी पड़ेगी . श्चर्य नहीं कोई वन का हिंसक जन्तु आ टूटे-तो बस कथा समाप्त हो जाय , दिया बुझ जाय. जो होना था सो तो होईगा अब बहुत सोच विचार से क्य हाथ आना है--चलो-"जब ओखली में सिर दिया तो मूसरों की क्या गिनती रही"--यही निदान सोच शिव सी अखंड' समाधि लगाय आसन मार बैठ रहे . ज्यौंही समाधि लगाई अनेक कौतुक देख पड़े. शरत्काल प्रगट हुआ आकाश निर्मल शंख सा दिखाने लगा. सारस हंस चकोर सब के सब पूनो की शोभा निरखने लगे . जल विमल हो गया नदियाँ स्वच्छ धारा से बहने लगी , चंद्र का प्रतिबिंब जल के अंतर्गत छबि करने लगा दुष्ट काले मेघ चंद्रमा के प्रकाश को देख . .