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पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/१८५

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श्यामास्वप्न

शिखर के ऊपर धरा था विराजमान हैं . उनके सामने हनुमान जी हाथ जोड़े खड़े हैं,

गरुड़ भी सेवा में तत्पर अड़े हैं . बाई ओर एक बजूबली भोग लगाने वाला पार्श्वद ब्राह्मण खड़ा है . महावीर की पूछ पकड़े एक बड़ी सुपेत डाढ़ी वाले वृद्ध महामुनि थे इनके पीछे हाथ जोड़े बड़े गुरियों की माला लिए दोगा पहरे लाल बनात का कनटोप दिए-त्रिपुण्डू के ऊपर रामफटाका फटकाए उपनहे पावन-एक आँख से हँसता और दूसरी से रोता-लंबा साठिया- बूढ़ा-गाढ़ा और मुनिजी के सुख में सुखी और उनके दुख में दुखी बना उन्हीं के पीछे खड़ा था इसके ललार की खाल सिकुड़ गई थी , दाँत और ओंठ दोनों बदरंग पड़ गए थे . आश्चर्य नहीं कि ताम्बूल और चूर्ण दोनों अपना काम दसनों पर आरंभ कर चुके थे . मुख विवर ऐसा जनाता था मानों किसी पर्वत की गुफा हो . दाँत की पांति ऐसी थी मानो कंदरा के मुख पर चट्टाने लगी हों-बुढ़ापा झलक आया था और आधे से अधिक यौवन का कुठार बन चुका था . इसके बगल में एक भैरववाहन पाहन से भी दुष्ट लुलखरी करता बैठा था . भैरववाहन का रंग गोहुआँ माथे पर रामानंदी तिलक-बाहु और हृदय पर राम- नाम छापे-पूछ हिलाते, उदर और दाँत दिखाते-कभी कभी भोंकता हुआ देख पड़ा. आगे के दाँतों में गीता की पोथी दबाए पर भीतर हड्डी चबाते बैठा था . इसके दहिनी ओर इसका प्राणोपम मित्र और अनुचर साक्षात् वाराह भगवान् अपने दंष्ट्रकराल पर लवेद की पुस्तक धरे मानों अभी महासागर से उसे उद्धार कर लाया हो बैठा था . इसके गलमुच्छे और कान तक लंबे बाल शोभा देते थे . माथे पर रोरी या चंदन की रेख इसके मत को पुष्ट करती चमकती थी . इसी के पार्श्व में महाशय शीतलावाहन भी डटे थे , ए वाराह भगवान् के भाई थे इनको शीतला अष्टक गप्पाष्टक से भी बढ़ के कंठ था और यद्यपि ए अपने खर शब्दों के हेतु कल कंठ न थे तथापि भगवती दुर्गा को लपेट सपेट के द

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