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पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/१९१

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श्यामास्वप्न

पुरुष को अपने पेट में धर लिया, मैं दाँत तरे उँगली दबा के रह गया- स्तब्ध हो गया--यह तो साक्षात् नरबलि था , मैंने पहले कभी नहीं देखा था, भोजनानंतर ज्यौंही चंडी ने ऊपर दृष्टि की एक अंडा मंदिर के छत से गिरा, गिरते ही फूट गया . उस अंडे में से दो गौर बदन वाले पुरुष जिनके नाम फणीश और लुप्तलोचन थे त्यूरी चढ़ाए पहुँच गर-- इन दोनों का आकार बंदर सा था, पर पूछहीन रहने के हेतु मनुष्य जान पड़े. वे दोनों अपना अपना नाम लेते आए . किस देश के थे कौन कह सक्ता था . पर इन दोनों ने श्यामसुंदर को जकड़ कर बाँधा था, बिचारा हिल चल नहीं सकता था. मैं सजीव हुआ, आसरा हुआ कि मित्र के दर्शन तो हुए अब न जाने दूंगा. पर मुझे क्या ज्ञान था कि वह बिचारा क्रिस यमयातना में पड़ा है, तो भो साहस कर-"भाई- भाई" -कह कर दौड़ा कि कंठ से तो एक बार मिल लो, पर ज्यौंही निकट गया उन दोनों विकट पुरुषों ने रोष (रुष्ट हो ऐसी हुँकारी मारी कि मैं रुक गया, ज्योंही मेरे नेत्र मुँदे वे लोग लोप हो गए-श्यामसुंदर को एक बार और खो दिया-बस • हर्मगति बड़ी कुटिल होती है और तिसपर मेरी, मेरी तो सदा की खोटी थी-. श्यामसुंदर की दुर्दशा सोचने लगा . चंडी भवानी ने बड़ी दया करके कहा 'इतने ही में तेरी मति चकरा गई-अभी तो और देख क्या देखता है-लै-आज तू दिन भरे का भूखा होगा-दूसरे विरह कातर.-ले थोड़ी सी सुरा पी ले- बल होगा, इंद्रियों को सहारा मिलैगा और मेरे कौतुक देखने में सामर्थ्य होगी . तू वैष्णव है तो मैं भी तो वैष्णवी हूँ-प्रेरा रूप देख .

"तथैव वैष्णवी शक्तिर्गरुडोपरि संस्थिता ।
शङ्खचक्रगदाशार्ङ्गखङ्गहस्ताभ्युपाययौ ॥"

मैंने कहा-"देवि तेरी अनंत माया है-तेरा रूप कौन देख सकता -मैं तेरा आज्ञाकारी हूँ-जो कृपा कर देगी अवश्य ग्रहण करूँगा." 7