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पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/१९३

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श्यामास्वप्न

और लुप्तलोचन सेनापति थे--बालि के मरने पर सुग्रीव ने पुराने सेना- पतियों को निकाल इन्ही श्रेष्ठों को उस उच्च पद का अधिकारी किया था--सुग्रीव को कार्यभार से नेत्रों से कम सूझने लगा- -विभीषण के पास जलवायु सेवन के लिए लंका चले गये थे-हाँ, आग लगी-तो लगने दो-बुझावो-लोग बुझाने लगे-आग न बुझी-नारदजी अपना (अपनी) बीना ही बजाते रहे--उधर मकरंद गोमती चक्र पूजते पूजते लील गया. वशिष्ठ शांतिकारक वैदिक मंत्र पढ़ते रहे--अग्नि देवता न प्रसन्न हुई-तो कोई क्या करै--पुरवासी विकल इधर उधर पानी पानी पुकारते दिखाई पड़ते हैं-भैरववाहन पर कपटनाग के शिष्य बैठे और शीतलावाहन पर स्वयं शीतला जी सवार होकर ग्राम की रक्षा करने लगीं--नाकों नाकों पर पहरे बैठ गए-किसकी सामर्थ जो निकलै . मनुष्यों का ठठ्ठ इकट्ठा हो गया, अग्नि की ज्वाला प्रज्वलित हुई-बढ़ के आकाश की राह ली • लड़केवाले चिल्लाने लगे-

तात मात हा करिय पुकारा । एहि अवसर को हमहिं उबारा ॥
खोजत पंथ मिले नहीं धूरी । भए भस्म सब रहिन अधूरी ।।

वशिष्ठ के घर से वह देखो एक छंछुदर निकल पड़ी . पर बोध न हुआ कि किधर गई- -सब पहरे चौकी लगे ही रहे-यह छंछुदर बड़ी पुंश्चली थी-चक्रधर का चक्र फिरा धर्म का पहरा आया . रमा ने जोवन दान किये-वजूमणि का आत्मज सुरलोक को सिधारा . अब फाल्गुन ऋषि का बुलौवा हुआ है, वे भी परमधाम सिधारे, आज्ञा कैसे टारते . म्याद थोड़ी है . शाक्य मुनि को गद्दी होगी-बोधमत फैलेगा . पुरवाई चली . फणीस की बहिन लटोरे डोरिया ने व्याही, लुप्तलोचन की स्त्री ने द्वितीय विवाह किया . पर देखते हैं तो आगी नहीं बुझी- मैंने सोचा कि अब बिना मेरे (मेरी) दया के कुछ शांति नहीं होगी- व्यर्थ लोग जले जाते हैं उठकर हाथ में नदी और समुद्र का जल ले मंत्र पढ़ने लगा-