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पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/३२

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सारांश यह कि 'श्यामास्वप्न' के रचयिता का अध्ययन बड़ा ही विस्तृत था । संस्कृत और हिन्दी के काव्यों का रस निचोड़ कर उन्होंने इस 'श्यामास्वप्न' में भर देने का प्रयत्न किया है। प्रकृति-वर्णन की प्रेरणा उन्हें संस्कृत कवियों से मिली और शृंगार-वर्णन की प्रेरणा हिन्दी के रीतिकालीन कवियों से ।

जगमोहन सिंह की अपनी काव्य-रचना में भारतेन्दु हरिश्चंद्र का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। रोतिकालीन अलंकारप्रियता और चमत्कार के स्थान पर भारतेन्दु ने रसात्मकता और स्वाभाविकता को विशेष महत्व दिया और भारतेन्दु की रचना में जो रसात्मकता और स्वाभाविकता है, जगमोहन सिंह की कविता में भी उसी प्रकार की सरल, सहज स्वाभाविकता और सरसता मिलती है। उदाहरण के लिए देखिए:

कौन कहैगो हमैं "पिय प्यारे सुनो मनमोहन ए बतियाँ ।
तुम आवो अचानक गेह तहाँ तुहि लायहौं आनंद सो छतियाँ।
पल पावड़े डारि रहौंगी डटी डेवढ़ी डर छोड़ि अधीरतियाँ।
पुनि मूदहुँगी निज अंक में बाहु पसारिके" ऐसी लिखी पतियाँ ॥

(पृ० १६९ )
 

अब कौन रह्यौ मुहि धीर धरावतो को लिखि है रस की पतियाँ ।
"सब कारज धीरज में निबहै निबहे नहिं धीर बिना छतियाँ।


इन खोहनि में दल रीछनि को बसि जोबन जोर मरोर जतावै ।
गिरि-गँ ज के संग उमंग भन्यो, भयकारी धुनी घनघोर मचावै ।
कहुँ कुंजर सों सँ दि कुन्दरुकी कुचिली निज गाँठिन को दरसावै ।
तिनसों कहुँ सीतल और कसाय चुई रस-गंधि चहूँ छिति छावै ।।