सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/४३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

श्री.

समर्पण

श्रीमत् हृदयंगम बाबू मंगलप्रसाद मणिजू-कन्हौली . प्रियतम !

तुम मेरी नूतन और प्राचीन दशा को भलीभांति जानते हो-मेरा तुमसे कुछ भी नहीं छिपा तो इसके पढ़ने, सुनने और जानने के पात्र तुम ही हो तुम नहीं तो और कौन होगा ? कोई नहीं . श्यामालता के . वेत्ता तो आप हो न ? यह उसी संबंध का श्यामास्वप्न भी बनाकर प्रकट करता हूँ . रात्रि के चार प्रहर होते हैं इस स्वप्न में भी चार प्रहर के चार स्वप्न हैं . जगत् स्वप्नवत् है तो यह भी स्वप्न ही है. मेरे लेख तो प्रत्यक्ष भी स्वम हैं—पर मेरा श्यामास्वप्न स्वम ही है. अधिक कहने का अवसर नहीं .

प्रेमपात्र ! तुम इसके भी पात्र हो . मेरी तुम्हारी प्रीति की सचाई और दृढ़ता का ब्यौरा तुमही करोगे . यहाँ कोई निर्णय करने वाला नहीं,

यह मेरी प्रथम गद्यरचना है, क्या इसे अंगीकार न करोगे ? तुम्हारा "मोती मंगल" और यह मेरा "श्यामास्वप्न" हम दोनों के जीवनचरित की सरिताकल्लोल का चक्रवाक क-मिथुन या हंस का जोड़ा आजीवान्त कलोल करैगा जिसके सरस तीर के निकुंजमंडप पर 'श्यामालता' सदा लहलहाती रहैगी-जिस कुंज के 'प्रेमसंपत्ति' और 'श्यामासरोजिनी' रूपी विहंगम सदा चहक चहक कर 'श्यामालता' की शोभा बढ़ावैगे-'श्यामसुंदर' चातक सदा प्यासे ही बन कर 'पीपी'