सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/६१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२१
श्यामास्वप्न

भगवान् विभावरीनायक अपनी सोलहो कला से उदय हुए, दुर्जन के सदृश अंधकार का आकार ही लोप हो गया . स्वच्छता का बिछोना . चाँदनी ने महीतल में बिछाया . कौमुदी ने चाँदनी तानी . उस समय की शोभा कौन कह सकता है .

“चञ्चच्चन्द्रकरस्पर्शहर्षोन्मीलित तारका ॥
अहो रागवती संध्या जहाति स्वयमम्बरम् ।।"

औषधियों के नायक ने सब औषधियों को अपने कर से सुधा सीच कर फिर जिलाया . कुमुदिनी प्रमुदित होकर अपने प्रियतम को सहस्र नेत्रों से देखने लगी . सौत नलिनी ने आँख बंद कर ली . परकीया कहीं स्वकीया की बराबरी कर सक्ती है . चंद्रमा से जगन्मोहन गुण की अभिरामता क्या सूर्य के तेज में है. इसी से चंद्रमा का नाम लोकानंदकर प्रसिद्ध (है). कोकनद से सेवक अपने नायक के (की) वृद्धि पर हर्षित हुए . वन की लता पता पर प्रकाश क्रम से फैलने लगा. समभूमि से, वन-वन से उपवन-उपवन से द्रुम-द्रुम से पादप-पादप से वृक्ष-वृक्ष से गुल्म लता- वल्ली आदि को आक्रमण करके महीधरकी मेखला-मेखलासे शैल-शैल से पर्वत-पर्वतसे शिखर-शिखर से तुंग पर अपना सुयश फैलाकर फिर अपनी कीर्ति कहने के लिए स्वगंगा मंदाकिनी में अवगाहन कर गोलोक-गोलोक से विष्णुलोक-विष्णुलोक से ब्रह्मलोक, वहाँ से चंद्रलोक को फिर लौट गया . मृत्युलोक में मानों एक वितान सा तान दिया हो . प्रथम तो सागर के किनारे से निकला . सागर की द्वितीय बड़वानल के सदृश अपनी किरनों से तरल तरंगों में फंसकर क्रम से व्योम के किनारों को कुंदन से कलित किया . पर्वत के शिखर पर चाँदनी विखर गई . पत्तों पर एक अपूर्व शोभा दिखाने लगी . मंद वायु से कंपित होकर पत्र भी यत्र तत्र अपनी परछांही फेंकने लगे. नदी के लोल लहरों में मिलकर सौ चंद्रमा पैठे से जान पड़ते थे--झरनों का झरना कैसा मनोहर लगता था, मानौ मोती के गुच्छे पर्वत के ऊपर से छूट छूट कर गिरते हों .