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पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/७५

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श्यामास्वप्न

गया सोचने लगा यह कैसी लीला करती है . भला कुछ और इससे पूछना चाहिए . ऐसा मन में ठान फिर भी कुछ कहने को उत्सुक हुआ और निकट जा बोला .

"चंद्रमुखी यदि तुझै कष्ट न हो तो कुछ पूछ्, मेरा जी तुझसे कुछ बात करना चाहता है .

"भद्र कहो क्या कहते हो , जो इच्छा हो पूछो" . ऐसा कह चुप हो गई .

मैंने कहा “भद्रे--यदि क्लेश न हो तो कहो तुम किस राजर्षि की कन्या हो कहाँ तुम्हारा देश है और इस शिखरपर किस हेतु फिरती हो?"

उसने कहा "मेरी कथा अपार है, सुनने से केवल दुःख होगा . कहना तो सहज है पर सुनकर धीरज धरना कठिन जनाता है. ऐसा कौन वजू हृदय होगा जो उसे सुन फूट फूट कर न.रोवैगा-यह मेरी अभागिनी के चरित किसने न सुने होंगे और सुनकर कौन दो आँसू न रोया होगा" इतना कह लंबी साँस लेकर नेत्रों में जल भर लिया . मैं तो सूख गया कि हा देव इस देवी को भी दुःख है क्या ऐसी धन्य और सुंदरी को भी दुर्भाग्य ने नहीं छोड़ा . वाह रे विधाता तेरा विधान धन्य है. धिक्कार है तुझै जो तूने इस पुरायात्मा जीव पर भी दया न की . न जाने यह अपनी कथा कह कर कौन कौन विष के बीज बोवैगी और क्या क्या हाल कह कर बेहाल करैगी . फिर भी ढाढ़स बाँध बोला

"सुंदरी मैं बहु शोकग्रस्त हुवा क्या मैंने तुम्हें कष्ट तो नहीं दिया. जान पड़ता है कि तुम्हारे पूर्व दुःख के (की)घटा फिर से हृदय गगन पर छा गए (ई). तो अब कही देना भला है क्यों कि “विवक्षितं ह्यनुक्तम- नुतापं-जनयति" और भी किसी परिचित या सज्जन के सामने जो दुःख और सुख का समभागी हो कहने से दुःख बट जाता है .

"स्निग्धजनविभक्तं हि दुःखं सह्यवेदनम्भवति ।
"स्वजनस्य हि दुःखमग्रतो विवृतद्वारमिवोपजायते ।"

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