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पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/८३

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स्यामास्वप्न

मुख छवि कहि न जाय मो पांही । जो बिलोकि बहु काम लजाही ।।
उर मणिमाल कंबु कल ग्रीवा । कामकलभ कर भुजबल सीवा ॥
राम समाज महँ कोशल राजकिशोर
सुंदर श्यामल गौर तनु विश्वविलोचन चोर ।
शरद चंद्र निदंक मुख नीके । नीरज नैन भावंते जी के॥
चितवनि चारु मार मनहरनी । भावति हृदय जाति नहिं वरनी ।।
कल कपोल श्रुति कुंडल लोला । चिबुक अधर सुंदर मृदुबोला ।
कुमुद बंधु कर निंदक हासा । भृकुटी बिकट मनोहर नासा ।।
भाल विशाल तिलक झलकाहीं । कच बिलोकि अलि अवलि लजाहीं॥
पीत चौतनी सिरन सुहाई । कुसुमकली बिचबीच बनाई ।।
रेखें रुचिर कंजु कलग्रीवा । जनु त्रिभुवन सुखमा की सीवा ।।
कुंजर मणिकंठाकलित उर तुलसी की माल ।
वृषभ कंध केहरि ठवनि बल निधि बाहु विशाल ।।"

ऐसा सुन्दर ग्राम जिस्में श्यामसुंदर स्वयं विराजमान हैं मेरा जन्मस्थान था . वाग भी राग और विराग दोनों देता है . देवालयों की अवली नदी के तीर में नीर पर परछाहीं फेकती है-ऐसा जान पड़ता है कि जितने ऊँचे कगूरों से वह अंबर को छूती है उसी भाँति पाताल की गहराई भी नापती है-जहाँ विचित्र पांथशाला-बाला और बालक पाठशाला-न्यायाधीश और प्रबंधकों के आगार-बनियों का व्यापार जिनके द्वारे फूलों के हार टंगे हैं जहाँ की (के) राजपथों पर व्योपारियों की भीर सदैव गभीर सागर सी बनी रहती है चित्त पर ऐसा असर करती है जो लिखने के बाहर है .

चौड़े चौड़े राजपथ संकीर्ण वीथी अमराइयाँ और नदी के तट सब अभिसारिका और नागरों के सहायक हैं ! विलासियों का सहेट अभि-