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पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/९०

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श्यामास्वप्न

"यह किस बखेड़े में पड़े-महाराज-सचेत होकर इसकी मनो- रंजनी कहानी को तो पूरी सुनिए . यह क्या बात थी जो आपको उसका नाम सुनते ही मोह और मूर्छा आ गई".

मैंने कहा- "मुझे भी इस मोह का कारण नहीं ज्ञात हुआ कि अकस्मात् क्यौं ऐसा हो गया था"-

इतना कह मैंने श्यामा की ओर देखा , उसका मुख भी मलीन पड़ गया था . इसको देख मुझे और भी शंका हुई कि यह क्या विचित्र लीला है . भला मैं तो ऐसा हो गया पर यह भोली किस भ्रम में पड़ी है . हृदय के शोक को रोक पूछा-

"सुंदरी तुम्हारी यह क्या दशा है-तुम क्यों मलीन पड़ती जाती हो"-

श्यामा ने कहा-"कुछ नहीं, इसका सब वृत्त तुम आप धीरे धीरे जान जावगे . केवल चित्त लगाकर सुनौ, भला तुम क्यौं निःसंज्ञ हो गए थे-"

"क्या जानूं यह क्या मुझे हो गया था-पर अब सुनता कहिए"- इतना कह मैं चुप हो गया .

श्यामा बोली-“जब मैं छोटी थी मुझै माता पिता बड़े लाड में रखते थे-उनके कोई पुत्र न रहने के कारण मैं उनके नेत्रों की पुतरी थी और वे लोग मुझे सदा हाथ ही पर धरे रहते थे, रात दिन मेरे लालन और पालन ही में लगे रहते . थोड़े दिनों पर मेरे प्रथम के संस्कार करके मुझे मेरे माता पिता ने एक बाला पाठशाला में विद्याउपार्जन के हेतु भेज दिया . यह पाठशाला ग्राम के कारन बहुत भारी न थी-तौ भी २० या २५.बालिकाओं से कम प्रति दिन इस शाला में पढ़ने को नहीं जाती थीं , मेरे साथ अनेक बाला पढ़ती थीं पर ईश्वर की दया से मैं इतने शीधू पढ़ गई कि मेरी बराबरी पुरानी विद्यार्थिनी भी न कर सकी.