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पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/१५८

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श्रीमद्भगवद्गीता यातु पुनः अयुक्तः असमाहितः कामकारेण परन्तु जो अयुक्त है अर्थात् उपर्युक्त निश्चयवाला करणं कारः कामस्य कारः कामकारः तेन नहीं है वह कामकी प्रेरणासे 'अपने फलके लिये यह कर्म मैं करता हूँ इस प्रकार फलमें आसक्त होकर कामकारेण कामप्रेरिततया इत्यर्थः । मम बँधता है । इसलिये तू युक्त हो अर्थात् उपर्युक्त फलाथ इदं करोमि कर्म इति एवं फले सक्तो निश्चयवाला हो, यह अभिप्राय है । करणका नाम कार है, कामके करणका नाम कामकार है, उसमें तृतीया निबध्यते । अतः त्वं युक्तो भव इत्यर्थः ॥१२॥ ! विभक्ति जोड़नेसे कामके कारणसे अर्थात् 'कामकी प्रेरणासे' यह अर्थ हुआ ॥ १२ ॥ यः तु परमार्थदर्शी स:- । परन्तु जो यथार्थ ज्ञानी है वह- सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी । नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् ॥ १३ ॥ सर्वाणि कर्माणि सर्वकर्माणि संन्यस्य परित्यज्य । (वशी-जितेन्द्रिय पुरुष) समस्त कमाको मन नित्यं नैमित्तिकं काम्यं प्रतिषिद्धं च सर्वकर्माणि छोड़कर अर्थात् नित्य,नैमित्तिक, काम्य और निपिश- तानि मनसा विवेकबुद्धया कर्मादो अकर्म- | इन सब कर्मोको कर्मादिमें अक्रर्म-दर्शनरूप विवेक- संदर्शनेन संत्यज्य इत्यर्थः,आस्ते तिष्ठति सुखम् । बुद्धिके द्वारा त्यागकर सुखपूर्वक स्थित हो जाता है। त्यक्तवाङ्मन कायचेष्टो निरायासः प्रसन्न- मन, वाणी और शरीरकी चेष्टाको छोड़कर, चित्त आत्मनः अन्यत्र निवृत्तवाह्यसर्वप्रयोजन परिश्रमरहित, प्रसन्नचित्त और आत्मासे अतिरिक्त अन्य सब बाह्य प्रयोजनों से निवृत्त हुआ (वह) सुख- इति सुखम् आस्ते इति उच्यते । पूर्वक स्थित होता है, ऐसे कहा जाता है । वशी जितेन्द्रिय इत्यर्थः, क्व कथम् आस्ते वशी-जितेन्द्रिय पुरुष कहाँ और कैसे रहता इति आह-- है ? सो कहते हैं- नवद्वारे पुरे सप्त शीर्षण्यानि आत्मन नौ द्वारवाले पुरमें रहता है। अभिप्राय यह कि दो कान, दो नेत्र, दो नासिका और एक मुख- शब्दादि उपलब्धिद्वाराणि अर्वाग् द्वे मूत्रपुरीषविसर्गाथै विषयोंको उपलब्ध करनेके ये सात द्वार शरीरके ऊपरी भागमें हैं और मल-मूत्रका त्याग करनेके लिये तैः द्वारैः नवद्वारं पुरम् उच्यते । शरीरं पुरम् इव दो नीचेके अङ्गमें हैं, इन नौ द्वारोबाला शरीर पुर पुरम् आत्मैकखामिकम् , तदर्थप्रयोजनैः च कहलाता है। शरीर भी एक पुरकी भौति पुर है, जिसका स्वामी आत्मा है, उस आत्माके लिये ही इन्द्रियमनोबुद्धिविषयैः अनेकफलविज्ञानस्य | जिनके सब प्रयोजन हैं एवं जो अनेक फल और उत्पादकैः पौरैः इव अधिष्ठितम्, तस्मिन् विज्ञानके उत्पादक हैं, उन इन्द्रिय, मन, बुद्धि और विषयरूप पुरवासियोंसे जो युक्त है, उस नौ द्वारवाले नवद्वारे पुरे देही सर्व कर्म संन्यस्य आस्ते । पुरमें देही सब कोंको छोड़कर रहता है ।