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पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/१६४

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कहूँ भौन राते रचे धूम-छाहीं।
ससी सूर मानौं लसै मेघ माहीं॥
जरै सस्त्रसाला मिली गधमाला।
मलै अद्रि मानौ लगी दाव-ज्वाला॥६४॥
चली भागि चौहूँ दिसा राजरानी।
मिली ज्वाल-माला फिरै दुःखदानी॥
मनो ईस-बानावली लाल लोलै।
सबै दैत्यजायान के संग डोलै॥६५॥
[सवैया]
लक लाइ दई हनुमत विमान बचे अति उच्चरुखी ह्वै।
पावक मैं उचटै बहुधा मनि, रानी रटै 'पानी' 'पानी' दुखी ह्वै॥
कचन को पघिल्यो पुर पूर, पयोनिधि मै पसरो सो सुखी ह्वै।
गंग हजारमुखी गुनि, केसौ, गिरा मिली मानौ अपार मुखी ह्वै॥६६॥
[दो०] हनुमत लाई लंक सब, बच्यो विभीषन धाम।
ज्यौं अरुनोदय बेर मै, पकज पूरब याम ॥६७॥
[सयुता छद]
हनुमत लक लगाइ कै। पुनि पूछ सिंधु बुझाई कै।
शुभ देख सीतहि पॉ परे। मनि पाय आनँद जी भरे॥६८॥
रघुनाथ पै जब ही गये। उठि अक लावन को भये।
प्रभु मै कहा करनी करी। सिर पाय की धरनी धरी॥६९॥
[दो०] चिंतामनि सी मनि दई, रघुपति कर हनुमत।
सीताजू को मन रँग्यो, जनु अनुराग अन त ॥७०॥