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पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/१७७

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लिये वानराली कहों वात तोसों।
मो कैसे लरै राम सग्राम मोसों॥३५॥
अगद--[विजय छ द]
हाथी न, साथी न, घोरे न, चेरे न, गाउँ न, ठाउँ को ठाउँ बिलैहै।
तात न मात, न पुत्र, न मित्र, न वित्त, न तीय कहीं सँग रैहै॥
केसव काम को राम विसारत और निकाम न कामहिं ऐहै।
चेति रे चेति अजौ चित अतर, अतकलोक अकंलोई जैहै॥३६॥
[भुजगप्रयात छ द]
रावण-डरै गाय विप्रै, अनाथै जो भाजै।
परद्रव्य छॉडै परस्त्रीहिं लाजै॥
परद्रोह जासौं न होवै रतीको।
सु कैसे लरै वेष कीन्हे यती को॥३७॥
[दो०] गेंद करेउँ मैं खेल को हरगिरि केसौदास।
शीश चढाये आपने, कमल समान सहास॥३८॥
[दडक]
अगद-जैसो तुम कहत उठायौ एक गिरिवर,
ऐसे कोटि कपिन के बालक उठावहीं।
काटे जो कहत सीस, काटत घनेरे घाघ',
भगर के खेले कहा भट पद पावहीं।
जीत्यो जो सुरेस रन,साप ऋपि-नारि ही को,
समुझहु हम द्विज नाते समुझावहीं।


(१) घाघ = ऐंद्रजालिक। (२) भगर = जादू।