सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/२३५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(१८५)

कुत्ते की नालिश
[दोधक छद]
कूकुर--काहुके क्रोध विरोध न देख्यो।
राम को राज तपोमय लेख्यो॥
तामहँ मैं दुख दीरघ पायो।
रामहिं हौं सो निवेदन आयो॥१५१॥
राजसभा महँ श्वान बोलायो। रामहि देखत ही सिर नायो।
राम कह्यो जो कछू दुख तेरे। श्वान निशक कहो पुर' मेरे॥१५२॥
श्वान--[दो०] निज स्वारथ ही सिद्धि द्विज, मोको कर यो प्रहार।
बिन अपराध अगाधमति, ताको कहा विचार॥१५३॥
ब्राह्मण--[दो०] यह सोवत हो पथ मैं, ही भोजन को जात।
मैं अकुलाइ अगाधमति, याको कीन्हों घात॥१५४॥
[तोमर छद]
राम--सुनि श्वान कहि तू दड। हम देहिं याहि अखंड॥
कहि बात तू डर डारि। जिय मध्य आपु विचारि॥१५५॥
श्वान--[दो०] मेरो भायो करहु जो, रामचद्र हित मडि।
कीजै द्विज हि मठपती, और दड सब छडि॥१५६॥
[निशिपालिका छ द]
पीत पहिराइ पट बाँधि शिर सों पटी।
बोरि अनुराग अरु जोरि बहुधा गटी॥


(१) पुर = सामने (पुर)। (२) गटी = समूह।