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पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/१२८

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रामवयंवर । यहि विधि जस तस के भटमारे । ल्याये रंगभूमि के द्वारे । 'चली मल्ल जे पाँच हजारे । धरि मंजूषा अनत सिधारे । गाधिसुवन कहँ जनक लिवाई | गया जहां धनु दियोधगई। विश्वामित्र संग दोउ भाई । चले मत्त गज-गवन लजाई। मुनि जहँ मंजूपा दरसाई । जिहि विधिसुंदर चौक पुराई ।। हर-कोदंड जानि तपधामा किया महामुनि धनुष प्रनामा॥ भूप विदेह मुदित मन भयऊ। मुनि आसन लिवाय पुनि गया। बैठे ले मुनि अवध-कुमारे । निज आसन विदेह पगु धारे ॥ (छंद) उठि उठि सवै देखन लगे भाषत परस्पर हैन। मिथिलाधिराज-लली भली आवत चली चित चैन । नर नारि सिय लखि कहहि यहि हित यह स्वयंवर होत। अनुरुप सोई भूप जाकर पूर्व पुन्य उदीत ॥ ६५६ ॥ (छंद चौबोला) चाप समीप गई वैदेही सखिन समाज समेतू । गजन लखन व्याज निरख्या तह उभय भानुकुल केतू ।। 'लागी पूजा करन धनुप की मन रघुपति-पद लागा। धूप दीप नैवेद्य आदि सब दीन्हो सहिन विभागा ॥६॥ 'यहि विधि चारि प्रदच्छिन दैक कियो प्रनाम पुनीता। मनहीमन विनवति महेस को समुझि पिता पन सीता। अंतरहित है कयो आय शिव सीता कानन यानी । • नहि अभिलाप असत्य रावरी लेहु सत्य यह जानी ॥६६,