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पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/२१२

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रामस्वयंवर।

१६६ रामस्वयंवर। (दोहा) शत्रुशाल तव लपन से फह्यो वचन फर जोरि। मैं तोपौं रन विप्र को यही अरज है मोरि॥ २१३ ॥ (कवित्त) वोल्यो भृगुनाथ कौन तू है ? शत्रुशाल अही; फाको पुत्र है २ १ अवधेश को कुमार हौं । तू है राम ? छोटो वंधु है। तौ रामचन्द्र-दास; का है तेरे मन में ? तो युद्ध को तयार है। काहे काल आयो १ कहो काल को बुलायो कौन ? मेरे कर फाल मेंही काल के अकार हौं । भाजै रे समाज छोड़िा कैसे रघुराज भाजै? डरै नहि मोहि कहा जाति को गंधार हो ॥२१४॥ (दोहा) सरल वानि बोले भरत, सुनहु विप्र सिरताज । • तुम दोऊ मानहु कहो होइ न कछुक अकाज ॥२५॥ नाथ तुम्हारे वचनहीं हमको बन हजार । वृथा बाँधि आये धनुष सायक खड्ग कुठार २१६॥ कह वशिष्ठ भृगुनाथ सुनु कीजे छमा अगाधु । वाल दोष गुन गहत नहिं ज्ञानवान जे साधु ॥ २१७ ॥ को राम रघुकुल-गुरू कहि प्रताप बल मोर। चेगि दुझावहु बालकन टारहु और ठार ।। २१८ ॥