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पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/२४०

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२२४
रामस्वयंवर।

२२४ रामस्वयंवर। (दोहा) मुनि कपीस फी जीति रन इन्द्रजीत कह बोलि। . जग रामन रावन तुरत पठ्यो मासे खोलि ॥४०॥ अल सस्त्र निज मोघ लखि इन्द्रमीत अति कोपि । तज्यो अमेविहिब्रह्माशा फपि पाँधन चित चो४ि०५॥ मानि ब्रह्मसर फपि प्रल दिनहूँ देखन लंक । अपनेहीं सोधिगयो किया न मन फछु संक॥ . यांधि पवनसुत ले चल्यो पिता निकट घननाद । सुनि रावन मान्यो तुरत लमा पाइ महलाद ॥ ..। (कवित्त) देखि लंकनाथ को निसंक कपि दोल्यो वैन छोडि धर्म फोन्बों है अधर्म कर्म भारी तू । जनस्थान नाहकै लुकाइके चुराई सउ लाहिं विहाय हरि ल्याये परनारो तू ॥ भयो जो लो भयो अय जनमुना को लये प्रभु पाय आठ परै दंत जुनधारी तू । सके नहि राखि दिघि हरिहर राम द्रोहा मारि जैहै हठि सीख मानिले हमारी तू ॥३०८| सुनत सार दशकंठ को बीरन से सुनत कहा हो बेगि कोल वधि डासरे। उठते मटन चैन बोलत विभीपन से दूत है अवध्य बैठौ सकल गवारो रे ॥ नीति निरधारी नहिंमारोनाय दूतै नापि इनसॉ उचारी अंगभंग करिडारीरे। मानि लंगराय अतुराय या रजाय 'दोक्यों पावक लगाय याको पूछि प्रिय जारी रे ॥३०॥