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पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/२६२

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२४६
रामस्वयंवर।

२४६ रामस्वयंवर। चहुं ओर ते तिहि काल। आवन लगे सरजाल । लागे कटन कपि जय । गिरिगे बरूय यस्य ॥५४५॥ , बोले लपन सौ राम । धननाद यह पलधाम । ब्रह्मन कीन · प्रयोग । तिहि मानियो अव जोग ॥५४॥ . जब लगि रहव हम ठाढ़ । तब लगि अमर्षहि बाढ़ ॥ अस कहि सिथिल इव राम।लछिमन सहित बलधाम ॥५४७॥ कोउ रह्यो रन नहिं ठाढ़। धननाद सर लगि गाढ़। घननाद किय घननाद । पायो, परम अहलाद ॥४८॥ लंका गयो जय पाय । दिय पितुहि सकल सुनाय ॥ दिनमनि भये तहँ अस्त । कपि सैन्य विकल समस्त ॥५४॥ लंकेस अनुज स्वतंत्र । ब्रह्मास्त्र वारन मंत्र ॥ जानत रह्यो यक सोय । ताते. गयो नहिं सोय ॥५५०॥ उठि तुरत पवनकुमार । अस कीन बचन उचार। जो होय प्रान समेत । तिहि खोजिये करि नेत ॥५५३॥ दोउ लियो ठीक विचारि । यक - लूक लीन्हो बारि॥ खोजन. . लगे रनभूमि । हनुमत विभीपण धूमि ५५२॥ . . , (दोहा)

पवनसुवन लंकेसह खोजत खोजत जाय। . जामवंत को लखत भे सर जर्जरित वनाय ॥५५३॥ 'कहो विभीषणं ऋच्छपति, जीवत हो की नाहिं। : जस तस के बोल्यो वचन, जामवंत तिहि काहिं ॥५५॥ .. कहहु तात हनुमान कहुँ; जीवत है की नाहि । . .