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संग्राम

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दसवाँ दिन है, मैं गाँवकी तरफ नहीं गया। न जाने राजेश्वरी पर क्या गुजर रही है। कौन मुंह लेकर जाऊं? अगर कहीं गांववालोंको यह चाल मालुम हो गई होगी तो मैं वहां मुंह भी न दिखा सकूंगा। राजेश्वरीको अपनी दशा चाहे कितनी कष्टप्रद जान पड़ती हो, पर उसे हलधरसे प्रेम है। हलधरका द्रोही बनकर मैं उसके प्रेमरसको नहीं पा सकता। क्यों न कल चला जाऊँ, इस उधेड़ बुनमें कबतक पड़ा रहूँगा। अगर गाँववालोंपर यह रहस्य खुल गया होगा तो मैं विस्मय दिखाकर कह सकता हूँ कि मुझे खबर नहीं है, आज ही पता लगाता हूँ। सब तरह उनकी दिलजोई करनी होगी और हलधरको मुक्त कराना पड़ेगा। सारी बाजी इसी एक दाँवपर निर्भर है। मेरी भी क्या हालत है पढ़ता हूँ (Democracy) और......अपनेको धोखा देना व्यर्थ है, यह प्रेम नहीं है, केवल कामलिप्सा है। प्रेमदुर्लभ वस्तु है, वह उस अधिकारका जो मुझे असामियोंपर है, दुरुपयोग मात्र है।

(दर्बान आता है)

क्या है? मैंने कह दिया है इस वक्त मुझे दिक मत किया करो, क्या मुख्तार आये हैं? उन्हें और कोई वक्त ही नहीं मिलता?

दर्बान--जी नहीं, मुख्तार नहीं आये हैं। एक औरत है।