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सातवां दृश्य
समय--प्रातःकाल, ज्येष्ठ। स्थान--गंगाका तट। राजेश्वरी

एक सजे हुए कमरे में मसनद लगाये बैठी है। दो तीन
लौडियाँ इधर-उधर दौड़कर काम कर रही हैं।

सबल सिंहका प्रवेश।

सबल--अगर मुझे, उषाका चित्र खींचना हो तो तुम्हीको नमूना बनाऊँ। तुम्हारे मुखपर मंद समीरणसे लहराते हुए केश ऐसी शोभा दे रहे हैं मानो............

राजे०--दो नागिनें लहराती चली जाती हों, किसी प्रेमीको डँसनेके लिये।

सबल--तुमने हँसीमें उड़ा दिया, मैंने बहुत ही अच्छी उपमा सोची थी।

राजे०--खैर, यह बताइये तीन दिनतक दर्शन क्यों नहीं दिया?

सबल--(असमंजसमें पड़कर) मैंने समझा शायद मेरे रोज आनेसे किसीको सन्देह हो जाय।