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सातवां दृश्य
(स्थान—दीवानखाना, समय—३ बजे रात, घटा छाई हुई है,
सबलसिंह तलवार हाथमें लिये द्वारपर खड़े हैं।)

सबल—(मनमें) अब सो गया होगा। मगर नहीं आज उसकी आँखोंमें नींद कहाँ। पड़ा-पड़ा प्रेमाअग्निमें जल रहा होगा। करवटें बदल रहा होगा। उसपर यह हाथ न उठ सकेंगे। मुझमें इतनी निर्दयता नहीं है। मैं जानता हूँ वह मुझपर प्रतिघात न करेगा। मेरी तलवारको सहर्ष अपनी गर्दनपर ले लेगा। हा! यही तो उसका प्रतिघात होगा। ईश्वर करें वह मेरी ललकारपर सामने खड़ा हो जाय। तब यह तलवार व्रजकी भाँति उसकी गर्दनपर गिरेगी। अरक्षित, निःशरू पुरुषपर मुझसे आघात न होगा। जब वह करुण दीन नेत्रोंसे मेरी ओर ताकेगा—जैसे छुरेके नीचे बकरा ताकता है—तो मेरी हिम्मत छूट जायगी।

(धीरे धीरे कंचनसिंहके कमरेकी ओर बढ़ता है।)

हा! मानवजीवन कितना रहस्यमय है। हम दोनोंने एक ही