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चौथा अङ्क

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लिये एक हाथसे भरा था। जिसे आप प्रेम कहते हैं वह काम-लिप्सा थी। आपने अपनी लालसाको शान्त करने के लिये एक बसे-बसाये घरको उजाड़ दिया, उसके प्राणियोंको तितर-वितर कर दिया। यह सब अनर्थ आपने अधिकारके बलपर किया। पर याद रखिये ईश्वर भी आपको इस पापका दण्ड भोगनेसे नहीं बचा सकता। आपने मुझसे उस बातकी आशा रखी जो कुलटाएं ही कर सकती हैं। मेरी यह इज्जत आपने की। आंख- की पुतली निकल जाय तो इसमें सुरमा क्या शोभा देगा? पौधेकी जड़ काटकर फिर आप उसे दूध और शहदसे सीचें तो क्या फायदा। स्त्रीका सत हरकर आप उसे विलास और भोगमें डुबा ही दें तो क्या होता है। मैं अगर यह घोर अपमान चुप- चाप सह लेती तो मेरी आत्माका पतन हो जाता। मैं यहां उस अपमानका बदला लेने आई। हां, आप चौंके नहीं, मैं मनमें यही संकल्प करके आई थी।

(ज्ञानीका प्रवेश)

ज्ञानी—देवी, तुझे धन्य है। तेरे पैरों पर शीश नवाती हूँ।

सबल—ज्ञानी! तुम यहां?

ज्ञानी—क्षमा कीजिये। मैं किसी और विचारसे नहीं आई। आपको घरपर न देखकर मेरा चित्त व्याकुल हो गया।

सबल—यहांका पता कैसे मालूम हुआ?