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पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/१७७

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पहला खण्ड ] पाण्डवों के अज्ञात वास की समाप्ति पड़ गये हैं। इससे गायों को यहाँ से हटा कर और मोरचाबन्दी करके होशियार हो जाना चाहिए । नहीं तो बचना कठिन है। दुर्योधन भी कुछ डर कर कहने लगे :- इस बात का अच्छी तरह निश्चय कर लेना चाहिए कि पाण्डवों के प्रतिज्ञा के तेरह वर्ष बीत गये कि नहीं । लोग समझते थे कि अभी कुछ दिन बाक़ी हैं । पर हमें अब इसमें सन्देह होता है। अपने मतलब की बात सोचते समय लोगों का भ्रम में पड़ जाना कुछ आश्चर्य की बात नहीं। पितामह भीष्म हिसाब लगा कर इस बात को ठीक ठीक जान सकते हैं । किन्तु कुछ भी हो, डरने का कोई कारण नहीं; हमने तो प्रतिज्ञा कर ली है कि यह आदमी चाहे कोई मत्स्यवीर हो, चाहे मत्स्यराज हो, अथवा चाई ख़ुद अर्जुन ही क्यों न हो, हम इससे लड़ेंगे ज़रूर । अपने शिष्य अर्जुन का आचार्य बहुत प्यार करते हैं। इससे उनकी शक्ति को वे बढ़ा कर बताते हैं जिसमें हम लोग डर जायँ । किन्तु हम सबको सुना कर कहते हैं कि चाहे पैदल हो, चाहे सवार, जो कोई इस युद्ध से भागेगा वह हमारे बाण का निशाना होगा। यदि स्वयं इन्द्र अथवा यम भी गाये लौटाने आवें तो भी कोई आदमी बिना लडे हस्तिनापर.न लौट सकेगा। महारथी लोग क्यों इस समय रथों पर घबराये से बैठे हैं ? उन्हें इस बात का शीघ्र ही निश्चय करना चाहिए कि किस तरह युद्ध करना होगा। ___ कर्ण ने कहा :-बड़े आश्चर्य की बात है कि हमारे सारे धनुर्धारी योद्धा डर से गये हैं। जान पड़ता है वे लड़ना नहीं चाहते । यह मनुष्य चाहं मत्स्यगज हो, चाहे अर्जुन, इसने ऐसा कौन काम किया है जिससे सब लोग डर गये ? यह ठीक है कि अर्जुन नामी धनुर्धारी हैं; किन्तु हम उनसे किस बात में कम हैं ? आज हम लड़ाई के मैदान में अर्जुन को मार कर दुर्योधन के सामने अपनी प्रतिज्ञा पूरी करेंगे। दुर्योधन का प्राचार्य पर दोषारोप करना और कर्ण की आत्मश्लाघा कोई भी न सह सका। कृप ने कहा :-हे कर्ण! कर युद्ध करना और बुरी सलाह देना तो तुम खूब जानत हो; पर यह जरा भी नहीं जानते कि राज्य की सच्ची भलाई किस बात में है। देश और काल का विचार करके ही युद्ध करना अच्छा होता है। ऐसा न करने से हानि के सिवा लाभ नहीं होता। हमारी राय तो यह है कि अर्जुन से इस दशा में युद्ध करना हमारे लिए किसी तरह अच्छा नहीं। इस महावीर न अकल ही कुरुदश की रक्षा की है और अग्नि को तृप्त किया है। इसके सिवा पाँच वर्ष कठोर ब्रह्मचर्य रख कर साक्षात भगवान के दर्शन किये हैं। हे कर्ण ! तुमने कब और कौन सा बड़ा काम अकेले किया है जो अर्जुन का मुकाबला करने का साहस करते हो ? वृथा घमण्ड करने की जरूरत नहीं । आओ, हम लोग मोरचा बाँध कर सावधानी से युद्ध करें। अश्वत्थामा ने कहा :-हे कर्ण ! सारी गायें अब तक भी हमारे अधिकार में नहीं आई। इसलिए अभी से क्यों उछल कूद मचाते हो ? जुआ खेल कर कपट से तुमने जिनका धन हरण किया है क्या उनके साथ सम्मुख युद्ध करके कभी जीते भी हो ? इस घरेलू झगड़े को होते देख भीष्म बड़े दुखी हुए । वे सबको समझा कर कहने लगे :- कृप और अश्वत्थामा का कहना बहुप्त ठीक है। पर वे कर्ण का मतलब नहीं समझे । इसी से रुष्ट हो गये हैं। सिर्फ सबको उत्तेजित करने के लिए कर्ण ने महारथियों को डरपोक कहा है। पर दुर्योधन को यह उचित न था कि वे आचार्य पर दोष लगाते । जो हो, अभी हमें बहुत बड़ा काम करना है। सबको उचित है कि एक दूसरे को क्षमा करके यह स्थिर करें कि युद्ध कैसे करना चाहिए । हे दुर्योधन ! हमारी राय सुनिए । हम समझते हैं कि भरतवंश के प्राचार्य द्रोण से बढ़ कर हमारा अगुआ होने योग्य फा०२०