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पृष्ठ:सप्तसरोज.djvu/११४

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सप्तसरोज
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हू। अब इस दुरवस्थाको समूल नष्ट करना चाहता हूँ। इस काममें मुझे आपकी सहायता और महानुभूतिकी जरूरत है। मुझे अपना शिष्य बनाइये। मैं याचक भावसे आपके पास आया हूँ। इस भारको सँभालनेकी शक्ति मुझमे नहीं। मेरी शिक्षाने मुझे किताबोंका। कीडा बनाकर छोड़ दिया और मनके मोदक, खाना सिखाया। मैं मनुष्य नहीं, किन्तु नियमोंका पोथा हूँ। आप मुझे मनुष्य वनाइये, मैं अब यहीं रहूँगा, पर आपको भी यहीं रहना पड़ेगा। आपकी जो हानि होगी उसका भार मुझपर है । मुझे सार्थक जीवनका पाठ पढ़ाइये। आपसे अच्छा गुरु मुझे न मिलेगा। सम्भव है कि आपका अनुगामी बनकर मैं अपना कर्तव्य पालन करने योग्य हो जाऊँ।