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पृष्ठ:सप्तसरोज.djvu/४४

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सप्तसरोज
४४
 


का कुछ फल न हुआ तो वह यह मानकर सन्तोषकर लेगा कि विद्योपार्जनमें मैंने यथाशक्ति कोई बात उठा नहीं रखी, विद्या उसके भाग्य हीमे न थी तो कैमे आती?

मगर जुमराती शेख स्वयं आशीर्वादके लायक न थे। उन्हें अपने सोटेपर अधिक भरोसा था और इसी सोटेके प्रतापसे, आज आसपासके गावोंमें जुम्मनकी पूजा होती थी। उनके लिखे हुए रिहननामे या बैनामेपर कचहरीका मुहर्रिर भी कलम न उठा सकता था। हल्केका डाकिया, कांस्टेबिल और तहसीलका चपरासी-सब उनकी कृपाकी आकांक्षा करते थे। अतएव अलगूका मान उनके धनके कारण था तो जुम्मन शेख अपनी अमोल विद्यासे ही सबके आदर-पात्र बने थे।

जुम्मन शेखकी एक बूढ़ी खाला (मौसी) थी। उनके पास कुछ थोडी-सी मिलकियत थी। परन्तु उसके निकट सम्बन्धियों में कोई न था। जुम्मन ने लम्बे-चौड़े वादे करके वह मिलकियत अपने नाम चढ़वा ली थी। जबतक दान-पत्र की रजिस्टरी न हुई थी तबतक खाला जानका खूब आदर-सत्कार किया गया, उन्हें स्वादिष्ट पदार्थ खिलाये गये। हलुवे पुलाव की वर्षा सी की गई, पर रजिस्टरीकी मुहर ने इन खातिरदारियोंपर भी मानो मुहर लगा दी। जुम्मन की पत्नी करीमन रोटियों के साथ कड़वी बातों से कुछ तेज तीखे सालन भी देने लगी। जुम्मम शेख भी निष्ठुर हो गये। अब बेचारी खाला-जानको प्रायः नित्य ही ऐसी बात सुननी पड़ती थी।