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पृष्ठ:सप्तसरोज.djvu/८६

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सप्तसरोज
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शर्माजी निरुत्तर होकर भी विवाद कर सकते थे। बोले—गजटको आप देववाणी समझते होंगे, मैं नहीं समझता।

वकील—आपके कान में तो आकाश के दूत कह गये होंगे? साफ साफ क्यों नहीं कहते कि जान के डर से भागा जा रहा हूँ।

शर्माजी—अच्छा, मान लीजिये यही सही। तो क्या पाप कर रहा हूँ? सबको अपनी जान प्यारी होती है।

वकील—हा, अब आये राहपर। यह मरदोंकी-सी बात है। अपने जीवन की रक्षा करना शास्त्र का पहला नियम है। लेकिन अब भूलकर भी देशभक्तिकी डींग न मारियेगा। इस काम के लिये बडी दृढ़ता और आत्मिक बलकी आवश्यकता है। स्वार्थ और देशभक्ति में विरोधात्मक अन्तर है। देशपर मिट जानेवाले को देश सेवकका सर्वोच्च पद प्राप्त होता है वाचालता और कोरी कलम घिसनेसे देशसेवा नहीं होती। कम से कम मैं तो अखबार पढ़ने को यह गौरव नहीं दे सकता। अब कभी बढ़-चढकर बात न कीजियेगा । आप लोग अपने सिवा सारे संसार को स्वार्थान्ध समझते हैं इसीसे कहता हूँ।

शर्माजीने उस उद्दण्डताका कुछ उत्तर न दिया। घृणा मे मुँह फेरकर गाड़ीमें बैठ गये।

तीसरे ही स्टेशनपर शर्माजी उतर पड़े। वकीलकी कठोर बातोंसे खिन्न हो रहे थे। चाहते थे कि उसकी आंख बचाकर निकल जाय। पर उसने देख ही लिया और हँसकर बोला, क्या आपके ही गांवमें प्लेगका दौरा हुआ है?