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पृष्ठ:सप्तसरोज.djvu/८८

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सप्तसरोज
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अक्ल भी चली जाती है। यह लो घोड़ेको टहलाओ। मुँह क्या बनाते हो, कोई सिंह है कि खा जायगा?

किसानने भयसे कांपते हुए राम पकड़ी, उसका घबराया हुआ मुख देखकर हँसी आती थी। पग पगपर घोड़ेको चौकन्नी दृष्टि से देखता, मानों वह कोई पुलिसका सिपाही है।

रसोई बनानेवाले महाराज एक चारपाईपर लेटे हुए थे। कड़ककर वोले, अरे नउआ कहाँ है। चल पानी-वानी ला, हाथ-पैर धो दे।

कहारने कहा, अरे किमीके पास जरा सुरती-चुना हो तो देना। बहुत देरसे तमाखू नहीं खाई।

मुख्तार (कारिन्दा) साहबने इन मेहमानोंकी दावतका प्रबंध किया। साईस और कहारके लिये पूरियां बनने लगीं, महाराजको सामान दिया गया। मुख्तार साहब इशारेपर दौड़ते थे और दीन किसानोंका तो पूछना ही क्या, वे तो बिना दामोंके गुलाम थे। सच्चे स्वतंत्र लोग इस समय सेवकों के सेवक बने हुए थे।

कई दिन बीत गये। शर्माजी अपने बगलेमें बैठे हुए पत्र और पुस्तके पढ़ा करते थे। रस्किनके कथनानुसार राजाओं और महात्माओंके सत्सङ्गका सुख लूटते थे। हालैंडके कृषिविधान, अमेरिका के शिल्प-वाणिज्य और जर्मनीकी शिक्षा-प्रणाली आदि गूढ़ विषयोंपर विचार किया करते थे। गांव में ऐसा कौन था जिसके साथ बैठते? किसानोंसे बातचीत करनेको उनका जी चाहता, पर न जाने क्यों वे उजड्ड, अक्खड़ लोग उनसे दूर रहते।