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पृष्ठ:सप्तसरोज.djvu/९४

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सप्तसरोज
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जो लोग सहस्रों रुपये अपने भोग-विलासमें फूंकते हैं उनकी गणना भी जाति-सेवकोंमें है। मैं तो फिर भी कुछ-न-कुछ करता ही हूँ। मै भी मनुष्य हूँ, कोई देवता नहीं, धनकी अभिलाषा अवश्य है। मैं जो अपना जीवन पत्रों के लिये लेख लिखनेमें काटता हूँ, देश हितकी चिन्तामें मग्न रहता हूँ, उसके लिये मेरा इतना सम्मान बहुत समझा जाता है। जब किसी सेठजी या किसी वकील साहब के दरेदौलतपर हाजिर हो जाऊँ तो वह कृपा‌ करके मेरा कुशल-समाचार पूछ लें। उसपर भी यदि दुर्भाग्यवश किसी चन्देके सम्बन्धमें जाता हैं तो लोग मुझे यमका दूत समझते हैं। ऐसी रुखाईका व्यवहार करते हैं जिससे सारा उत्साह भंग हो जाता है। यह सब आपत्तियां तो मैं झेलूं, पर जब किसी सभाके सभापति चुननेका समय आता है तो कोई वकील साहब इसके पात्र समझे जाते हैं, जिन्हें अपने धनके सिवा उक्त पदका कोई अधिकार नहीं। तो भाई, जो गुड़ खाय वह कान छिदावे। देश हितैषिताका पुरस्कार यही जातीय सम्मान है, जब वहांतक मेरी पहुँच ही नहीं तो व्यर्थ जान क्यों दूँ? यदि यह आठ वर्ष मैंने लक्ष्मीकी आराधनामें व्यतीत किये होते तो अब तक मेरी गिनती बड़े आदमियों में होती। अभी मैंने कितने परिश्रमसे देहाती बैंकोंपर लेख लिखा, महीनों उसकी तैयारीमें लगे, सैकड़ों पत्र-पत्रिकाओंके पन्ने उलटने पड़े, पर किसीने उसके पढ़नेका कष्ट भी न उठाया। यदि इतना परिश्रम किसी और काममें किया होता तो कम-से-कम स्वार्थ सिद्ध होता। मुझे ज्ञात हो गया कि इन बातों को कोई नहीं पूछता। सम्मान और कीर्ति यह सब धनके नौकर हैं।