सदी प्रादमियों की जोचिका चलने लगी। अँगरेजी विद्या का प्रचार हुमा ।
सम्पत्ति शास्त्र अगरेजी स्कूलों में पढ़ाया जाने लगा । अँगरेजी में सम्पत्ति
शास्त्र की पुस्तकें लोगों ने देखी । तब कुछ शिक्षित और दूरदर्शी लोगों
का ध्यान इस शास्त्र की तरफ़ गया। कोई १० बर्ष दुग जन्न पण्डित धर्म-
नारायणा ने. देवली-कालेज से सम्बन्ध रखनेवाली एक विज्ञानवद्धिनो सभा
के लिए. इस शास्त्र की एक अंगरेजी किताब का उर्दू में अनुवाद किया ।
उसके प्रकाशित होने के कुछ धर्प बाद उन्होंने सर सैयद अहमद पत्रों की
प्रेरणा ले जान स्टुअर्ट मिल आदि की सम्पत्ति-शास्त्र-विपयक पुस्तकों के
आधार पर एक और भी पुस्तक उर्दू में लित्री । वह अलीगढ़ की सायंटिफ़िक
सोसायटी के प्रबन्ध से छपी। उधर, दक्षिणा में, राव साहब विश्वनाथ
नारायण मण्डलीक और पण्डिन कला शास्त्री चिपलूगाकर ने भी दो एक
अँगरजी पुस्तकों का अनुवाद मराटों में करके इस शास्त्र के प्रचार का
प्रारम्भ किया। तब से हिन्दी को छोड़कर और और भाषाओं में इस विषय
को कितनीही पुस्तके प्रकाशित हुई और वगावर प्रकाशित होती जाती
है। पर ये सब पुस्तकें प्रायः अँगरेजी पुस्तकों के अनुवाद है। दो एक को
छोड़कर. जहाँ नक हम जानते हैं, इस चिपय में किसी ने कोई स्वतन्त्र
पुस्तक मही लिखी। भारत को सम्पत्ति-सम्बन्धिनी अचम्धा को ध्यान में
रखकर किसी ने शासरीति से, चित्रभापूर्वक, सब बातों का विचार एक
जगह नहीं किया । इस कमी को दूर करने का अब यत्र नत्र प्रयत्न हो रहा है।
सम्पत्ति-शास्त्र का सम्बन्ध व्यापार और राज्य व्यवस्था से बहुत अधिक
है। पर इन दोनों बातों में यह देश पराधीन है। जिस तरह से विदेशियों
ने इस देश के राजपाट को अपने अधीन कर लिया है उसी तरह व्यापार
को भी। जब सम्पत्ति-शास्त्र के उत्पादक कारगा उपस्थित हुए तब स्वाधीनता
जाती रही। और स्वाधीनता के बिना सम्पत्ति वृद्धि के नियम बना कर
मदनुकुल व्यवहार करना और सम्पत्ति को नष्ट होने से बचाना बहुत
फठिन काम है। तथापि स्वदेशप्रेम का अङ्कर, लोगों के हृदय-क्षेत्र पर जैसे
जैसे अडरित होता जाता है तैसे तैसे इस देश की सम्पत्ति के बढ़ाने और
उसका निर्गमन रोकने की यश्वाशक्ति चेष्टा की जाने लगी है। यदि इस चेष्टा
में सफलता न भी हो, ना भो सम्पत्ति-शास्त्र के तत्त्वों के आधार पर इस
वात का विचार करने से कुछ न कुछ लाभ जरूरही होगा, कि व्यापार
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सम्पत्ति-शास्त्र।