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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

इस प्रकार, एशियाई-विरोधी नीतिके उत्साही समर्थक होते हुए भी, श्री सांडर्स इससे आगे नहीं जा सके। उसी पत्रमें वे माननीय महाशय आगे कहते हैं :

ऊँची श्रेणीके भारतीय देखते और महसूस करते हैं कि नये कुलियों और उनके बीच एक फर्क है।

इसलिए, ऐसा मालूम होता है कि उस समयकी सरकार भारतीय-भारतीयके बीच फर्क करनेपर बिलकुल ही राजी थी। दुर्भाग्यवश अब, अधिक स्वतन्त्र राज्यमें,गिरमिटिया, गिरमिट-मुक्त और स्वतन्त्र, सभी भारतीयोंको एक ही तराजूसे तोलनेकी कोशिश की जा रही है। प्रार्थी विनम्रतापूर्वक कहे बिना नहीं रह सकते कि श्री सांडर्सका विधेयक वर्तमान विधेयकको तुलनामें बहुत सौम्य था। परन्तु उस विधेयकका भी सम्राज्ञीकी प्रजावत्सल सरकारने समर्थन नहीं किया था। इसलिए प्राथियोंका निवेदन है कि मताधिकार कानून संशोधन विधेयकका समर्थन तो और भी नहीं होना चाहिए। उपर्युक्त पुस्तकमें ही पृष्ठ ७ पर तत्कालीन प्रवासी-संरक्षक श्री ग्रेव्जका यह कथन दिया गया है :

मेरा मत है कि केवल वही भारतीय न्यायपूर्वक मताधिकार पाने के हकदार है, जिन्होंने अपने और अपने परिवारोंके भारत लौटनेके मुफ्त टिकटका पूरा दावा छोड़ दिया है।

उन्होंने यह भी ठीक ही बताया कि श्री सांडर्सको सुझाई हुई हस्ताक्षरकी कसौटी व्यवहारमें यूरोपीय निर्वाचकोंपर लागू नहीं की जाती। उसी पृष्ठपर तत्कालीन महान्यायवादीने अपनी रिपोर्ट में कहा है :

यह स्पष्ट है कि मैंने जिस कानूनका मसविदा बनाया है उसमें प्रवर समितिको सिफारिशोंसे ली गई वे उपधाराएँ शामिल हैं जिनमें श्री सांडर्सके पत्रमें बताई गई वैकल्पिक योजनाको कार्यान्वित करने की व्यवस्था की गई है। परन्तु विदेशियोंको विशेष रूपसे मताधिकारके अयोग्य ठहराने के सुझाव मानने योग्य नहीं समझे गये।

महानुभावका ध्यान प्रार्थी उसी पुस्तकके पृष्ठ ९१ पर उन्हीं विद्वान सज्जनकी रिपोर्टकी ओर भी आकृष्ट करते हैं। विद्वान् महान्यायवादीकी ही एक अन्य रिपोर्टका अंश उद्धृत करनेका लोभ संवरण नहीं किया जा सकता। पृष्ठ १४ पर उन्होंने कहा है :

जहाँतक उपनिवेशके सामान्य कानूनके अन्दर पूरी तरहसे न आनेवाले प्रत्येक राष्ट्र या जातिके सब लोगोंको मताधिकारसे वंचित कर देने का सुझाव है, यह स्पष्ट है कि इस कानूनका लक्ष्य उपनिवेशवासी भारतीयों और क्रियोलों--का मताधिकार है, जिसका उपभोग वे इन दिनों कर रहे हैं। जैसा कि मैं पहले ही अपनी रिपोर्ट क्रम-संख्या १२ में कह चुका हूँ, मैं ऐसे कानूनको न्यायपूर्ण या जरूरी नहीं मान सकता।