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सम्पूर्ण गाधी वाङ्मय


(५) अब, प्रार्थी नम्रतापूर्वक किन्तु दृढ़ताके साथ निवेदन करते हैं कि गिरमिट की अवधिको पाँच वर्षसे बढ़ाकर लगभग अनिश्चित कालतक की कर देना अत्यन्त अन्यायपूर्ण है। वह इसलिए खास तौरसे अन्यायपूर्ण है कि जहाँतक गिरमिटिया भारतीयों द्वारा संरक्षित या प्रभावित उद्योगोंका सम्बन्ध है, इस प्रकारका कानून नितान्त अनावश्यक है।

(६) इन उपधाराओंका आविर्भाव १८९४ में नेटाल सरकार द्वारा भारत भेजे गये आयोग और श्री बिन्स तथा श्री मेसनकी रिपोर्टके कारण हुआ है। वह आयोग इन दो प्रतिनिधियोंका बना था। रिपोर्टमें इस प्रकारका कानून बनानेके लिए जो कारण बताये गये हैं वे "प्रवासी संरक्षककी वार्षिक रिपोर्ट १८९४" के पृष्ठ २० और २१ पर दिये हैं। प्रार्थी आयुक्तोंकी रिपोर्टका निम्नलिखित अंश उद्धृत करनेकी इजाजत लेते हैं :

एक ऐसे देश में, जहाँ देशो लोगों की आबादी यूरोपीयोंकी आबादीसे संख्या में इतनी अधिक है, भारतीयोंका अमर्यादित संख्या में बसना वांछनीय नहीं माना जाता। और सामान्य लोगोंकी इच्छा यह है कि अपने गिरमिटको अन्तिम अवधि समाप्त कर लेवेपर वे भारतको लौट जायें। २५,००० के लगभग स्वतन्त्र भारतीय तो उपनिवेशमें बसे हुए हैं हो। इनमें से अनेकने अपने मुफ्त वापसी टिकट रद हो जाने दिये हैं। यह संख्या व्यापार करनेवाले बनियोंकी भारी आबादी के अलावा है!

(७) इस प्रकार, इस विशेष व्यवस्थाके कारण सिर्फ राजनीतिक हैं। सही बात तो यह है कि बहुत ज्यादा भीड़भाड़ हो जानेका कोई प्रश्न ही नहीं है। एक नये बसे हुए देशमें, जहाँ विशाल भूमिक्षेत्र अभी जनहीन और बंजर पड़े हैं, ऐसा कोई प्रश्न हो ही नहीं सकता।

(८) उसी रिपोर्टमें आयुक्तने आगे कहा है :

अरबों के बारेमें व्यापारियों और दूकानदारोंमें बड़ी उग्र भावना फैली हुई है। ये अरब सबके सब व्यापारी हैं, मजदूर नहीं। परन्तु चूँकि इनमें से अधिकतर ब्रिटिश प्रजा हैं और किसी प्रकारके इकरारनामेके अधीन उपनिवेशमें नहीं आते, इसलिए मंजूर कर लिया गया है कि उनके मामलेमें हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता।
कुली लोग किसी बड़ी हदतक यूरोपीयोंके प्रतिद्वन्द्वी नहीं हैं। समुद्र-तटपर यूरोपीयोंका खेती-बाड़ी करना असंभव है। परन्तु बाग सारेके-सारे वहीं हैं। वहाँ कुलियों तथा देशी लोगोंको छोड़कर दूसरे नौकरोंकी संख्या हमेशा ही बहुत कम रही है।