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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


हो सकता है कि हमारी वृत्ति तो ऐसा करनेकी हो, किन्तु हमारी शक्ति उतनी न हो । विभीषण-जैसेको दीर्घकाल तक राक्षसी वातावरणमें रहना पड़ा था। फिर भला हमारी क्या बिसात? इसके अलावा कुछ लोग ऐसे भी होंगे जिनके सम्बन्धमें यह नहीं कहा जा सकता [ यानी उनमें शक्ति तो है ] परन्तु वे अपने वातावरणमें से निकलनेको इच्छा तक नहीं करते। इन दोनों प्रकारके लोगोंको चाहिए कि अकाल पीड़ितोंकी जितनी सहायता बन पड़े उतनी करें।

[ गुजरातीसे ]
इंडियन ओपिनियन, ९-१२-१९११

१६४. पत्र : छगनलाल गांधीको

टॉल्स्टॉय फार्म
लॉली स्टेशन
ट्रान्सवाल
मार्गशीर्ष वदी ४ [ दिसम्बर ९, १९११][१]

चि० छगनलाल,

तुम्हारा पत्र मिला। मैंने उस सम्बन्धमें कुछ भी चिन्ता नहीं की। मैं इसमें तुम्हारा या किसी दूसरेका कोई दोष नहीं मानता। ऐसी भूल सभीसे हो जाती है । मजिस्ट्रेट और वकील दोनों मिल गये और सो भी धूर्त ! फिर क्या पूछना है ? मजिस्ट्रेट और वकील दोनों फौरन पैसा पैदा कर लेना चाहते हैं। मुझे तो लगता है कि कानूनकी दृष्टिसे इसमें अपलेख (लाइबल) का मामला नहीं बनता।[२] शायद नाम मात्रका दोष हो गया है। यदि इसे अपराध माना जाये तो उसका जुर्माना एक पौंड ले सकते हैं । किन्तु वह भी जरूरी नहीं जान पड़ता ।

यदि मजिस्ट्रेट और वकीलका इरादा हमें हैरान करनेका हो तो यह मामला अदालत में भी जा सकता है । परन्तु उसके अदालत में जानेसे कोई हानि नहीं है ।

गरीबों की सहायता करनेवाले लोग ऐसे कारणोंसे नहीं डरा करते; वे अपने धनके कारण डरते हैं। यदि हम पैसेका उपयोग अपने निजी स्वार्थके लिए न करते हों तो ऐसी परिस्थितिमें वह कभी नष्ट हो जाये तो उसकी क्या चिन्ता ? हम कैसे हैं इसकी परीक्षा ऐसे अवसरोंपर ही होती है । अपना धन सुरक्षित रहे और हम यह भी गानें कि हमने दूसरोंपर उपकार किया है तो यह शैतानी कही जायेगी ।

 
  1. मालूम होता है कि यह पत्र छगनलाल गांधीके २८ सितम्बर, १९११ के पत्रके बाद और अनुमानतः १९११ में लिखा गया था। उस साल मार्गशीर्ष वदी ४, दिसम्बर ९ को पड़ी थी ।
  2. यह जनुबिया का मामला होगा, जिसका विवरण इंडियन ओपिनियन में आफ्रिकन क्रॉनिकलसे लेकर छापा गया था; देखिए पृष्ठ १५६ की पाद-टिप्पणी १ ।