जा सकती हैं; वैसे भी उसमें दोष हैं।[१]मेरी रायमें उसमें समझौतेका[२] पूरा पालन नहीं हुआ है । किन्तु मुझे आशा है कि समझौतेके पालनकी दृष्टिसे इसमें जो त्रुटियाँ रह गई हैं संशोधनके द्वारा उनका निवारण कर दिया जायेगा । यदि किसी महत्वपूर्ण बातमें संशोधन नहीं किया गया तो निश्चय ही फिरसे संघर्ष छिड़ जायेगा। ऐसा भी डर है, और वह निराधार नहीं है, कि विधेयक संसदके इस अधिवेशन में पास ही न किया जाये। लगता है, ऐसी स्थितिमें फार्मको चलाते ही रहना होगा । आप जानते हैं, लड़ाईका मुख्य मुद्दा ट्रान्सवालके प्रवासी कानूनमें जाति- भेदका अस्तित्व ही रहा है । हम आरम्भसे ही इसका विरोध करते आ रहे हैं। ट्रान्सवाल जबतक एशियाइयोंको, केवल एशियाई होनेके कारण, निषिद्ध प्रवेशार्थी माननेका हठ करता रहेगा तबतक संघर्ष भी चलता रहेगा। ज्यों ही यह भेद दूर हुआ और लिखित समझौते के अनुसार वे सब शर्तें तय हो गईं, जिनकी तफसील मुझे यहाँ देने की जरूरत नहीं है, कि सत्याग्रहियोंका अभिप्राय पूरा हो जायेगा। इसके बाद सचमुच कितनों और किन लोगोंको ट्रान्सवाल या संघमें प्रवेश करने दिया जायेगा, इस सम्बन्धमें सत्याग्रहियोंने, सत्याग्रहियोंके रूपमें, कोई आग्रह नहीं किया है। कितने आदमी, किस प्रकार प्रवेश कर सकेंगे, इसका निर्णय बहुत कुछ यहाँके लोगोंके व्यवहार और भारतकी माँगपर निर्भर रहेगा ।
इस संघर्षका शायद सबसे बड़ा और ठोस नतीजा निकला है फार्मपर एक स्कूलका प्रारम्भ । अभी हाल तक तो मैं उसे दो पक्के सत्याग्रहियों, श्री मेढ और श्री देसाईकी सहायतासे चला रहा था; अब मेरा एक भतीजा[३]उसमें मेरी सहायता कर रहा है। अभी विद्यार्थियोंकी संख्या पच्चीस है और पचाससे अधिक विद्यार्थी भरती करनेका विचार भी नहीं है । दिनमें पढ़कर घर चले जानेवाले विद्यार्थी नहीं लिये जाते । सबको यहीं फार्मपर रहना पड़ता है। अधिकतर माता-पिता अपने बालकका भोजन-व्यय १ पौंड १० शिलिंग प्रति मास देते हैं । इस प्रकार जो राशि मिलती है उसे सत्याग्रह-कोषके हिसाबमें जमा कर दिया जाता है । पढ़ाईका शुल्क कुछ नहीं लिया जाता। मानसिक शिक्षणके साथ-साथ दस्तकारीका अभ्यास भी करवाया जाता है, परन्तु सबसे अधिक बल चरित्र-निर्माणपर दिया जाता है । विद्यार्थियोंको किसी भी प्रकारका शारीरिक दण्ड न देकर उनके मन और बुद्धिको प्रभावित करके उनकी उत्तम सम्भावनाओंको प्रकट करने और उनका विकास करने की पूरी-पूरी कोशिश की जाती है। उन्हें अपने अध्यापकोंके साथ मिलने-जुलने और निस्संकोच अपनी बात कहनेकी अधिकतम छूट दी जाती है। वास्तवमें यह संस्था स्कूल नहीं, एक परिवार है और यहाँ व्यवहार तथा उपदेशके द्वारा ऐसा प्रयत्न किया जाता है कि सब बालक अपने-आपको इस परिवारका अंग समझने लगें। प्रातःकाल तीन घंटे तक बालक कोई सरल-सा शारीरिक श्रम करते हैं-