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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

पाया है कि पहले धर्मगुरु शादी रजिस्टर नहीं कर सकता था पर अब उनकी भी नियुक्ति इस कामके लिए हो सकती है।

[ गुजरातीसे ]

इंडियन ओपिनियन, ८-७-१९१४

३५४. भाषण: गुजराती समाजकी सभामें

डर्बन

[जुलाई ९, १९१४]

[गांधीजीने] कहा कि इस अवसरपर में उपनिवेशमें जन्मे भारतीयोंसे कुछ कहना चाहूँगा, क्योंकि मैं नहीं जानता, इसके लिए मुझे आगे कोई अवसर मिलेगा या नहीं। आपके सामने मैं पहले-पहल जब दक्षिण आफ्रिका आया था तब बोला था; और अन्तिम बार जब यहाँसे जा रहा हूँ तब बोल रहा हूँ। आपने ही दक्षिण आफ्रिकामें मेरे प्रथम राजनीतिक कार्य में हाथ बँटाया था। उस अवसरपर हमने भारतीयोंके मताधिकार-अप- हरण के विरुद्ध तत्कालीन उपनिवेश-मन्त्री लॉर्ड एलगिनके नाम कोई १०,००० भारतीयों द्वारा हस्ताक्षरित प्रार्थनापत्र भेजा था । सम्बन्धित विधेयकपर निषेधाधिकारका प्रयोग हुआ और इस तरह हमारा प्रार्थनापत्र देना सफल रहा था। अलबत्ता तत्कालीन सरकारने आगे चलकर दूसरे रूपमें अपना मंशा सिद्ध कर लिया था। उसीके बादसे आप लोग समाजके कार्य में सहयोग देते रहे, किन्तु यदि आप चाहें तो और भी बहुत कुछ कर सकते हैं। आप लोग ही दक्षिण आफ्रिकाके स्थायी भारतीय निवासी हैं। दक्षिण आफ्रिका आप लोगोंके लिए जन्म-भूमि है, आपका अपना घर है; और समाजके शेष सब अंगोंके कल्याण के लिए यह आवश्यक है कि वे उपनिवेशमें जन्मे भारतीयोंके साथ मिलक काम करें । आपका दायित्व बहुत बड़ा है। समझौतेके इस पौधेको सींचना, यूरोपीय और भारतीय समुदायों के बीच स्थापित आजके अपेक्षाकृत सौहार्द्रपूर्ण वातावरणकी रक्षा करना और दक्षिण आफ्रिकामें जो पूर्वग्रह आज भी मौजूद हैं, उन्हें अपने आचार-व्यवहारसे दूर करना आप ही लोगोंका काम है। यदि आप बराबर कर्तव्यरत रहे तो समय आनेपर यह सब कुछ हो जायेगा। उन्होंने नागप्पन और वलिअम्माका उल्लेख करते हुए कहा कि ये दोनों उपनिवेशमें उत्पन्न हुए थे, और वे महिलाएँ भी, जिन्होंने न्यू कैसिलमें उत्कृष्ट कार्य करके दिखाया, उपनिवेशमें ही उत्पन्न हुई थीं। उन्होंने अनुरोध किया कि वे अपने राष्ट्रीय गुणोंको बनाये रखें, अपनी मातृभाषा सीखें और अपनी मातृभूमिके इतिहास और परम्पराओंका

१. अपने अंग्रेजीमें दिए भाषण में अपना और बा का स्वागत करनेके लिए लोगोंको धन्यवाद देते हुए गांधीजींने बड़े ही मार्मिक शब्दोंमें हिन्दुओं और मुसलमानोंके बीचके मैत्रीपूर्ण सम्बन्धकी चर्चा की।

२. यह प्रार्थनापत्र मई, १८९५ में भेजा गया था। देखिए खण्ड १, पृष्ठ १८९-२१४ ।