है ! वे शब्द, जिनपर जनरल स्मट्स अक्सर जोर देते थे, अब भी मेरे कानोंमें गूंज रहे हैं। उन्होंने कहा था- --"गांधी, इस बार हम कोई गलतफहमी नहीं चाहते, हम कोई भी दिमागी या अन्य प्रकारके दुराव-छिपाव नहीं चाहते, सभी बातें स्पष्ट हो जानी चाहिए और मैं चाहता हूँ कि आपको जहाँ भी ऐसा लगे कि कोई लेखांश या शब्द आपके अर्थसे मेल नहीं खाता तो आप वहाँ मुझे बता दें"। और ऐसा ही हुआ। इसी भावनाको लेकर उन्होंने बातचीत चलाई। में उस समयके जनरल स्मट्सको याद करता हूँ, जब कि कुछ वर्ष पूर्व उन्होंने लॉर्ड क्रूको कहा था कि “दक्षिण आफ्रिका अपनी प्रजातीय भेदभावकी नीतिसे हटेगा नहीं, उसे भेदभाव जारी रखना ही पड़ेगा और इसलिए इस प्रवासी कानूनमें जो वंश है उसे हटाया नहीं जायेगा।" बहुत-से मित्रोंने जिसमें लॉर्ड ऍम्टहिल भी थे, हम लोगोंसे प्रश्न किया कि क्या आप लोग फिलहाल अपनी कार्रवाई मुल्तवी नहीं कर सकते ? मैंने जवाब दिया 'नहीं।' मेरा कहना था कि यदि भारतीय वैसा करते हैं तो इससे मेरी राजनिष्ठाकी नींव ढह जायेगी और चाहे मैं अकेला ही क्यों न रह जाऊँ, मैं लड़ता रहूँगा। लॉर्ड ऍम्टहिलने मुझे बधाई दी और उस महान और श्रेष्ठ व्यक्तिने इस संघर्ष में हमारा साथ कभी नहीं छोड़ा -- उस समय भी नहीं, जब उसका वेग बहुत मन्द हो गया था। और इसका परिणाम हमें आज नजर आ रहा है। अपनेको विजयी मानकर हम अपनेको बधाई देने लगे, इसका कोई कारण नहीं है। विजय प्राप्तिका तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता। प्रश्न था एक सिद्धान्तको स्थापनाका और वह सिद्धान्त यह है कि जहाँतक कमसे-कम दक्षिण आफ्रिकी संघका सम्बन्ध है, उसका विधान कभी भी जातीय भेदसे दूषित नहीं होगा, और न उसमें रंगकी निर्योग्यता ही होगी। व्यवहार निश्चय ही भिन्न प्रकारका होगा, जैसा कि प्रवासी- कानूनमें है। वह जातीय भेदभाव स्वीकार नहीं करता, परन्तु कार्यरूपमें हमने व्यवस्था कर ली है। हमने वचन दिया है कि भारतसे आवश्यकतासे अधिक आव्रजन नहीं होना चाहिए। मौजूदा पूर्वग्रहको तुष्टिके लिए गोया हमने उसे यह छूट दी है। ऐसा करना सही था या गलत, इस पर में अभी कुछ नहीं कहूँगा। मुख्य बात यह है कि संघर्षका उद्देश्य इस सिद्धान्तको स्थापना करना था और इसीलिए ब्रिटिश साम्राज्यमें वह महत्त्वपूर्ण बन गया था, और इसीलिए हमारा यह कष्ट झेलना पूर्ण रूपसे उचित तथा हमारे लिए सम्मानप्रद था। और मैं समझता हूँ कि यदि हम संघर्षपर इस दृष्टिसे विचार करें तो अवश्य ही किसी भी सभाके लिए यह सर्वथा उचित है कि वह ब्रिटिश संविधानके सिद्धान्तोंकी इस प्रकार स्थापनाके लिए अपनेको बधाई दे। समझौतके बारेमें में एक बात सावधानीके तौरपर कहना चाहता हूँ। वह यह कि समझौता दोनों ही पक्षोंके लिए सम्मानपूर्ण है। मैं समझता हूँ कि उसमें गलतफहमीकी कोई गुंजाइश शेष नहीं रह गई है, परन्तु जहाँ वह इस अर्थमें अन्तिम है कि उससे एक बड़े संघर्षका अन्त हो गया है, वहाँ इस अर्थमें अन्तिम नहीं है कि उसने भारतीयोंको वह सब-कुछ दे दिया है जिसे पानेका उन्हें अधिकार है। अभी भी स्वर्ण-कानून है, जिसमें बहुत-सी दुखदायी