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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

ही जाती है। यदि हममें सत्य होगा तो भारतीय समाज इस बार ज्यादा काम करेगा और अपना नाम ज्यादा उज्ज्वल करेगा।" यह जवाब मैंने दिया उस समय मैंने स्वप्नमें भी नहीं सोचा था कि गरीब हिन्दुस्तानी इतनी जागृति दिखायेंगे, बीस हजारकी बड़ी संख्या में लड़ाईमें शामिल होंगे और अपना तथा अपने देशका नाम अमर करेंगे । जनरल बोथाने अपने एक भाषण में कहा है कि हिन्दुस्तानी जनताने जैसी हड़ताल की और चलाई वैसी गोरे नहीं कर सके और न चला सके । अन्तिम लड़ाईमें स्त्रियाँ शरीक हुईं, सोलह वर्षके किशोर लड़के तो अनेक शामिल हुए और लड़ाईको बहुत ज्यादा धार्मिक स्वरूप मिला। दक्षिण आफ्रिकाके हिन्दुस्तानियोंकी बात सारी दुनिया में फैली । हिन्दुस्तान में गरीब और धनवान, जवान और बूढ़े, पुरुष और स्त्रियाँ, राजा और प्रजा, हिन्दू-मुसलमान, पारसी और ईसाई तथा बम्बई, मद्रास, कलकत्ता और लाहौर सब जगहोंके लोग जागे, सब हमारे इतिहाससे वाकिफ हुए और हमें मदद करने लगे। विलायतकी बड़ी सरकार चौंकी, भारतके वाइसरायने प्रजाका रुख पहचानकर प्रजाका पक्ष लिया। यह सब सारी दुनिया जानती है। मैं यहाँ इन बातोंका उल्लेख इस लड़ाईका महत्व बतानेके लिए कर रहा हूँ। लेकिन यह लेख लिखने में मेरा मुख्य हेतु तो उन बातोंकी चर्चा करनेका है, जिनका मुझे विशेष ज्ञान है, जिनकी हिन्दुस्तानको कोई खबर नहीं है और जिनका भान दक्षिण आफ्रिका में रहनेवाले हिन्दुस्तानी भाइयोंको भी पूरा-पूरा नहीं है।

टॉलस्टॉय फार्ममें जो तालीम ली गई थी, वह सब इस अन्तिम लड़ाई में काम आई। सत्याग्रहियोंने वहाँ जिस जीवनका अनुभव लिया, वह इस लड़ाईमें अमूल्य सिद्ध हुआ। उसी जीवनका अनुकरण और ज्यादा अच्छे रूपमें फीनिक्समें किया गया। जिस समय टॉल्स्टॉय फार्म बन्द किया गया उस समय उसमें रहनेवाले जो विद्यार्थी आनेके लिए तैयार थे वे फीनिक्समें आये। फीनिक्समें नियम और कड़े हो गये; हरएक विद्यार्थी तथा उसके माँ-बापके साथ यह शर्त की गई कि जो विद्यार्थी फीनिक्स में रहेगा उसे, यदि हमारी लड़ाई फिर शुरू हो और विद्यार्थी बालिग उम्रका हो तो, लड़ाईमें शामिल होना चाहिए। सच पूछिए तो फीनिक्समें जो तालीम दी जाती थी, वह मुख्यतः सत्याग्रहकी ही थी। फीनिक्समें रहनेवाले कुटुम्बोंको भी यह नियम लागू होता था। केवल एक ही कुटुम्ब ऐसा था जो इससे अलग रहा । इसलिए परिणाम यह आया कि फीनिक्स चलानेके लिए जितने आदमियोंकी जरूरत थी उनके सिवा बाकी सब लोग जब लड़ाईका अवसर आया तब उसके लिए तैयार थे। इसलिए तीसरी लड़ाईका आरम्भ फीनिक्सवालोंसे ही हुआ। जब स्त्रियाँ, पुरुष और बालक लड़ाईके लिए निकले, उस समयका दृश्य में कभी भूल नहीं सकता। हरएकके मनमें यही एक भाव हिलोरें ले रहा था कि हमारी यह लड़ाई एक धर्म-युद्ध है और हम इस धर्म-युद्धकी यात्रापर निकले हैं। जाते समय उन्होंने भजन गाये, कीर्तन किया। उनमें से एक प्रख्यात भजन यह था : 'सुख-दुःख मनमां न आणीए'- सुख और दुःखका विचार मनमें कभी न आने दें। उस समय बालकों, स्त्रियों और पुरुषोंके मुंहसे जो आवाज निकल रही थी, उसकी गूंज मेरे कानों में अभी भी उठ रही है। इसी संघके साथ महान् पारसी रुस्तमजी थे। कई लोग ऐसा समझते थे कि रुस्तमजीने पिछली बार इतना दुःख भोगा है कि इस बार