जुलाई २६, १९१५
तुम एम० ए० पास करनेका प्रयत्न कर रहे हो, मुझे तो यह शरीरका क्षय करनेके समान लगता है। यदि तुम्हें धन कमानेकी आवश्यकता न हो तो तुम संस्कृतका अच्छा अध्ययन करो और अन्य भारतीय भाषाएँ सीखो; यह आवश्यक है।
[गुजरातीसे]
बापुनी प्रसादी
अहमदाबाद
जुलाई २७ [ १९१५ ]
प्रिय श्री तिलक,
मुझे आपका संक्षिप्त पत्र मिला । आपसे मेरी मुलाकातके सम्बन्धमें अपने नामका उपयोग करनेका अधिकार मैंने किसीको भी नहीं दिया है। आपने जिन बातोंका उल्लेख किया है, मैंने उनको पढ़ा तक नहीं है। हमारी बातचीत व्यक्तिगत थी और व्यक्तिगत ही रहनी चाहिए। आपके द्वारा भेजा हुआ भेंटका मसविदा कदाचित् उसके साथ न्याय नहीं करता। मैंने यह कभी नहीं कहा कि मैं कांग्रेसकी तरफसे या उसके द्वारा दिये गये अधिकारके आधार पर काम करता हूँ। मैं तो केवल मित्रोंकी ओरसे एक मित्र और प्रशंसकके रूपमें आपके पास गया था। मैं तो यह भी नहीं जानता कि कांग्रेस कल इस सम्बन्धमें क्या रुख अपनायेगी। मैंने तो आपके सामने विचारार्थ एक प्रस्ताव-भर रखा था।
मैं अखबारी विवादमें पड़ना नहीं चाहता । आशा है आप मेरी इस इच्छाका खयाल रखेंगे और कदापि भेंटका विवरण प्रकाशित न करेंगे।
हृदयसे आपका,
मो० क० गांधी
महात्मा, खण्ड १ में प्रकाशित गांधीजीके स्वाक्षरोंमें लिखित मूल अंग्रेजी पत्रकी प्रत्याकृतिसे।
१. यह पत्र १९१५ में लिखा गया प्रतीत होता है, क्योंकि गांधीजीने ११ जुलाईको पूनामें तिलकसे
दो बार भेंट की थी।