पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 13.pdf/२४७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२१३
भाषण: बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में

तकरीरोंसे अलग मानता हूँ; क्योंकि वे जरूरी थे। फिर भी मैं यह कहनेकी धृष्टता कर रहा हूँ कि हम भाषण देनेकी कलाके लगभग शिखरपर जा पहुँचे हैं और अब आयोजनोंको देख लेना और भाषणोंको सुन लेना ही पर्याप्त नहीं माना जाना चाहिए; अब हमारे मनोंमें स्फुरण होना चाहिए और हाथ-पाँव हिलने चाहिए। पिछले दो दिनोंमें हमें बताया गया कि अगर भारतीय जीवनकी सादगी कायम रखनी है तो हमें अपने हाथ-पाँव और मनकी गतिमें सामंजस्य लाना आवश्यक है। वैसे यह भूमिका हुई। मैं कहना यह चाहता हूँ कि मुझे आज इस पवित्र नगरमें, इस महान्विद्यापीठके प्रांगण में अपने ही देशवासियोंसे एक विदेशी भाषामें बोलना पड़ रहा है। यह बड़ी अप्रतिष्ठा और शर्मकी बात है। पिछले दो दिनोंमें यहाँ जो भाषण दिये गये यदि उनमें लोगोंकी परीक्षा ली जाये और में परीक्षक होऊ तो निश्चित है कि ज्यादातर लोग फेल हो जायें। क्यों? इसलिए कि इन व्याख्यानोंने उनके हृदय नहीं छुए। मैं गत दिसम्बर में राष्ट्रीय महासभाके अधिवेशनमें मौजूद था। वहाँ बहुत अधिक तादादमें लोग इकट्ठा हुए थे। आपको ताज्जुब होगा कि बम्बईके वे तमाम श्रोता केवल उन भाषणोंसे प्रभावित हुए जो हिन्दीमें दिये गये थे। ध्यान दीजिए यह बम्बईकी बात है, बनारसकी नहीं, जहाँ सभी लोग हिन्दी बोलते हैं। बम्बई प्रान्तकी भाषाओं[१] और हिन्दीमें उतना फर्क नहीं है जैसा अंग्रेजी और भारतीय भाषाओंमें है; और इसलिए वहाँके श्रोता हिन्दी में बोलनेवालेकी बात ज्यादा आत्मीय भावसे समझ सके। मुझे आशा है कि इस विश्वविद्यालय में विद्यार्थियोंको उनकी मातृभाषाके माध्यमसे शिक्षा देनेका प्रबन्ध किया जायेगा। हमारी भाषा हमारा ही प्रतिबन्ध है और इसलिए यदि आप मुझसे यह कहें कि हमारी भाषाओंमें उत्तम विचार अभिव्यक्त किये ही नहीं जा सकते तब तो हमारा संसारसे उठ जाना अच्छा है। क्या कोई व्यक्ति स्वप्नमें भी यह सोच सकता है कि अंग्रेजी भविष्यमें किसी भी दिन भारतकी राष्ट्रभाषा हो सकती है? (“नहीं, नहीं” की आवाजें) फिर राष्ट्रके पाँवोंमें यह बेड़ी किस लिए? जरा सोचकर देखिए कि अंग्रेजी भाषामें अंग्रेज बच्चोंके साथ होड़ करानेमें हमारे बच्चोंपर कितना वजन पड़ता है। पूनाके कुछ प्रोफेसरोंसे मेरी बात हुई। उन्होंने बताया कि चूँकि हर भारतीय विद्यार्थीको अंग्रेजीके मारफत ज्ञान-सम्पादन करना पड़ता है, इसलिए उसे अपनी जिन्दगीके बेशकीमती बरसोंमें से कमसे-कम छः वर्ष अधिक जाया करने पड़ते हैं। हमारे स्कूलों और कॉलेजोंसे निकलनेवाले विद्यार्थियोंकी संख्यामें इस छः का गुणा कीजिए और फिर देखिए कि राष्ट्रके कितने हजार वर्ष बरबाद हो चुके हैं। हम पर आरोप लगाया जाता है कि हममें पहल करनेका माद्दा नहीं है। हो भी कैसे सकता है?यदि हमें एक विदेशी भाषापर अधिकार पानेके लिए जीवनके अमूल्य वर्ष लगा देने पड़ें तो फिर और हो क्या सकता है? और तो और हम इसमें भी सफल नहीं हो पाते। श्री हिगिनबॉटमने श्रोताओंको जितना प्रभावित किया क्या कल और आज बोलनेवालोंमें एक भी अन्य वक्ता उतना प्रभावित कर सका? यह उन बोलनेवालोंका कसूर नहीं

  1. १. तब बम्बई प्रान्तमें सिंध, कच्छ, काठियावाड़, सौराष्ट्र और महाराष्ट्रका बहुत-सा भाग आ जाता था। सिन्धी, गुजराती, मराठी उन दिनों वहाँकी प्रायः समानरूपसे महत्वपूर्ण भाषाएँ थीं।