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भाषण: मद्रासमें ‘स्वदेशी’ पर

सभामें बोले थे और उनके भाषणका एकमात्र उद्देश्य यह दिखाना था कि हिंसात्मक तरीके कितने आत्मघातक होते हैं।

[अंग्रेजीसे]
बॉम्बे क्रॉनिकल, १०-२-१९१६
 

१६९. भाषण: मद्रासमें ‘स्वदेशी’ पर[१]

फरवरी १४, १९१६

मैंने बड़ी झिझकके साथ आपके सामने बोलना स्वीकार किया। और विषयके चुनाव में भी बड़ी मुश्किल गुजरी। मैंने जो विषय चुना है वह बहुत नाजुक और कठिन है। नाजुक इसलिए कि स्वदेशीके सम्बन्धमें मेरी धारणाएँ जरा विशिष्ट ढंगकी हैं और कठिन इसलिए कि अपने विचारोंकी ठीक-ठीक अभिव्यक्तिके लिए भाषापर जैसे अधिकारकी जरूरत होती है वैसा अधिकार मुझे नहीं है। निःसन्देह मेरे भाषण में आपको बहुत-सी खामियां दिखाई देंगी किन्तु मुझे आपकी उदारतापर भरोसा है――खासकर तब, जब मैं आपसे कह रहा हूँ कि मैं जो कुछ बोलूँगा, उसके अनुसार या तो यथाशक्ति चल रहा हूँ या चलनेकी तैयारी कर रहा हूँ। आपने पिछले महीने भाषणोंकी जगह पूरा एक हफ्ता प्रार्थनाके लिए दिया, यह जानकर मुझे ढाढ़स होता है। मैंने पूरे मनसे प्रार्थना की है कि मैं जो-कुछ कहनेवाला हूँ वह फलप्रद हो और मुझे विश्वास है आप भी मेरे कथनकी सफलताके लिए प्रार्थना करेंगे।

बहुत सोचनेके बाद मैंने स्वदेशीकी एक परिभाषा निश्चित की है और शायद मेरा अभिप्राय इसके द्वारा सर्वाधिक स्पष्ट हो जाता है। स्वदेशी वह भावना है जो हमें दूरके बजाय अपने आसपासके परिवेशके ही उपयोग और सेवा तक सीमित रखती है। उदाहरणके लिए यदि धर्मको लें तो इस परिभाषाको सार्थक बनानेके लिए, मुझे अपने पूर्वजोंसे प्राप्त धर्मका ही पालन करना चाहिए। अपने समीपवर्ती धार्मिक परिवेशका उपयोग इसी तरह हो सकेगा। यदि वह मुझे सदोष जान पड़े तो मुझे चाहिए कि मैं उसके दोषोंको हटाकर उसकी सेवा करूँ। इसी तरह राजनीतिके क्षेत्रमें मुझे स्थानीय संस्थाओंका उपयोग करना चाहिए और उनके जाने-माने दोषोंका परिमार्जन करके उनकी सेवा करनी चाहिए। आर्थिक क्षेत्रमें मुझे निकट-पड़ोसियों द्वारा उत्पादित वस्तुओंका ही उपयोग करना चाहिए और यदि उन उद्योग-धन्धोंमें कहीं कोई कमी हो तो मुझे उन्हें ज्यादा सम्पूर्ण और सक्षम बनाकर उनकी सेवा करनी चाहिए। मुझे लगता है कि यदि ऐसे स्वदेशीको व्यवहारमें उतारा जाये तो इससे स्वर्णयुगकी अवतारणा हो सकती है। और जिस प्रकार हम स्वर्णयुगकी अवतारणाकी दिशामें अपने प्रयास मात्र इसीलिए बन्द नहीं कर देते कि वह हमारे युगमें अवतरित नहीं हो पायेगा, उसी प्रकार

 
  1. १. मिशनरी-सम्मेलनमें दिये गये इस भाषणका पाठ २१-६-१९१६ के यंग इंडिया में छपा था।