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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कष्ट होता है इसका कोई विचार नहीं किया जा सकता। इसके अन्तर्गत अगर पिन या सुईसे इसलिए वंचित रहना पड़े कि वे चीजें भारतमें नहीं बनतीं तो कोई परेशानी नहीं जान पड़नी चाहिए। स्वदेशीका व्रत लेनेवाला ऐसी हजारों चीजोंके बिना काम चलाना सीख लेगा, जो आज उसे आवश्यक लगती हैं। इसके सिवा, जो लोग असम्भव कहकर स्वदेशीको मनसे खारिज कर देते वे यह भूल जाते हैं कि आखिरकार स्वदेशी एक आदर्श है और उसे निरन्तर प्रयत्न करते रहकर ही प्राप्त किया जा सकता है। और यदि हम जो चीजें देशमें नहीं बनतीं, उनका उपयोग कुछ अवधिके लिए स्वीकार करके कुछ चीजोंकी हदतक भी स्वदेशीकी सीमा मान लें तो भी वह उद्देश्यकी दिशामें बढ़ना ही कहलायेगा।

अब मुझे स्वदेशीके विरुद्ध एक और आपत्तिका उत्तर देना है। आपत्ति उठानेवालोंका कथन है कि यह एक अत्यन्त स्वार्थपूर्ण सिद्धान्त है; सभ्यताके नैतिक विधानमें इसकी कोई गुंजाइश नहीं हो सकती। उनकी समझमें स्वदेशीका पालन असभ्यताके युगकी ओर लौट जाना है। मैं इस कथनकी विस्तृत व्याख्या नहीं करना चाहता। मैं तो इतना ही निवेदन करूँगा कि नम्रता और प्रेमके विधानके अनुरूप अगर कोई सिद्धान्त है तो वह ‘स्वदेशी’ का सिद्धान्त ही है। जब मैं अपने कुटुम्बकी सेवा करनेमें भी समर्थ नहीं हूँ, तब सारे भारतकी सेवा करनेपर कमर कसनेका विचार धृष्टता है। इससे तो अच्छा यही होगा कि मैं अपना प्रयत्न अपने कुटुम्बकी सेवा तक ही केन्द्रित रखूँ, और ऐसा समझूँ कि परिवारकी सेवा द्वारा मैं पूरे देशकी या यों कहिए कि, पूरी मानवताकी सेवा कर रहा हूँ। इसीमें नम्रता है और इसीमें प्रेमकी भावना है। कार्यका औचित्य आपके उद्देश्यसे निश्चित होगा। परिवारकी सेवा में उससे दूसरोंको होनेवाले कष्टोंकी परवाह किये बिना भी कर सकता हूँ। उदाहरणके लिए, मैं कोई ऐसा काम पा जाऊँ जिसमें लोगोंसे पैसा ऐंठनेकी गुंजाइश हो, और इस तरह अपनी जेब भी गर्म करूँ और कुटुम्बकी अनेक गैरवाजिब जरूरतोंको पूरा करने लगूँ। यह न तो कुटुम्ब की सेवा होगी और न देशकी। परिवारकी सेवाका दूसरा तरीका यह होगा कि मैं यह समझ लूँ कि प्रभुने मुझे हाथ-पाँव दिये हैं, ताकि मैं उनके बलपर अपने आश्रितोंके लिए और अपने लिए रोटी कमाऊँ। तब मैं अपने और जिनसे सीधा सम्बन्ध रख सकता हूँ उनके जीवनको एकदम सादा बना लूँगा। इस अवस्थामें मैं अपने कुटुम्बकी सेवा बिना किसी औरको कष्ट दिये कर सकूँगा। यदि हर आदमी जीवनकी इस पद्धतिका अनुसरण करे तो अनायास ही आदर्श स्थितिकी स्थापना हो जाये। उस स्थितिको सभी लोग साथ ही प्राप्त नहीं कर लेंगे। किन्तु हममें से जो लोग इसके सत्यको समझकर उसे जीवनमें उतारेंगे, वे उस शुभ दिनको पास लानेमें बड़े सहायक होंगे। इस जीवन पद्धतिमें दिखाई यह देता है कि मैं केवल भारतकी ही सेवा कर रहा हूँ, फिर भी इतना तो है ही कि मैं किसी दूसरे देशको हानि नहीं पहुँचाता। मेरी देशभक्ति वर्जनशील भी है और ग्रहणशील भी। वर्जनशील इस अर्थमें है कि मैं सम्पूर्ण नम्रताके साथ अपना ध्यान केवल अपनी जन्मभूमिकी सेवामें ही लगाता हूँ, और ग्रहणशील इस अर्थ में है कि मेरी सेवामें स्पर्धा या विरोधका भाव बिलकुल नहीं है। “अपनी सम्पत्तिका उपभोग इस तरह करो कि उससे तुम्हारे पड़ोसीको कोई कष्ट न पहुँचे”――यह केवल कानूनका